- आप बाहर बैठिए, बच्ची को क्लास में भेज दीजिए। चिंता मत कीजिए, इतनी छोटी भी नहीं है। हैड मिस्ट्रेस ने कहा।
बच्ची ने हाथ हिला कर मां को "बाय" कहा और क्लास की ओर दौड़ गई।
हैड मिस्ट्रेस फ़िर मां से मुखातिब हुईं - आप लोग बात की गंभीरता को क्यों नहीं समझते? बताइए, बच्ची इतनी बड़ी हो गई और आपने अभी तक इसे पढ़ने ही नहीं भेजा। स्कूल क्या फ़ैशन के लिए खोल रखे हैं सरकार ने? आठ साल की होने जा रही है, क्या सीखा होगा इसने घर में बैठे - बैठे...अब पहली क्लास के बच्चों के साथ बैठेगी तो क्या इसे लाज नहीं आयेगी? घर में कोई पढ़ा - लिखा नहीं है क्या?
- जी, फिलहाल तो घर ही नहीं था!
- क्या मतलब? लड़- झगड़ कर घर छोड़ दिया क्या बाबा? कोई लफड़े वाला काम तो नहीं? ये स्कूल है बाबा, बच्चा लोग के पढ़ने के वास्ते! घर कायकू छोड़ा?
- जी, वो मुल्क छूटा तो घर भी...
- अरे बाप रे ! रिफ्यूजी है क्या?
- जी, झगड़ा हमारा नहीं था, नेताओं का था। हमें कराची छोड़ना पड़ा।
- ओह, आय एम सॉरी! कहां रहते हैं?
- सिंधी कॉलोनी। मैं भी टीचर हूं।
- ओके, देन इट्स फाइन, नो प्रॉब्लम, शी विल एडजेस्ट। हैड मिस्ट्रेस ने कहा।
बच्ची की मां उन्हें हाथ जोड़ कर बाहर वेटिंग लाउंज में आकर बैठ गई।
लगभग एक घंटा बीता होगा कि हैड मिस्ट्रेस खुद चल कर बाहर आई। साथ में एक टीचर थी, और पीछे - पीछे मुस्कुराती हुई बच्ची भी।
हैड मिस्ट्रेस ने ख़ुश होकर कहा- वाह, बच्ची तो ब्रिलिएंट है, इतना कुछ जानती है? लगता ही नहीं, कि कभी स्कूल नहीं गई। हम इसे फर्स्ट में नहीं, सीधे फिफ्थ क्लास में प्रवेश देंगे। ये पांचवीं में पढ़ेगी।
मां "लाली" की आंखों में जैसे खुशी के आंसू आ गए। उन्हें यक़ीन ही नहीं हुआ कि घर में ही उनके बच्ची को पढ़ाने से उसने इतना कुछ पढ़ लिया है कि उसे एक अच्छे नामी स्कूल में अपने से भी बड़े बच्चों के साथ क्लास में प्रवेश मिल रहा है।
उनकी मुराद पूरी हो गई। बच्ची पढ़ने जाने लगी।
उधर सिंधी कॉलोनी में दो कमरे का छोटा सा घर भी मिल गया। पाकिस्तान के कराची से देश के विभाजन के बाद भारत आजाने पर अब कुछ न कुछ तो करना ही था इस परिवार को।
अपना सब कुछ तो वहीं छूट गया था। फ़िर कुछ समय इस ऊहापोह में निकल गया था कि हिंदुस्तान के किस शहर में अपना स्थाई ठिकाना बनाया जाए।
और इस तरह घूमते- घामते, रिश्तेदारों से मिलते हुए वो लोग मुंबई चले आए।
मुंबई अब उनका अपना शहर हो गया। मुंबई के सायन इलाक़े में ये परिवार बस गया। परिवार में दो बेटियां और पति पत्नी ही थे, पर चार लोगों का पेट पालने के लिए भी कोई न कोई कमाई का जरिया तो चाहिए ही।
पिता ने घर के पास ही किराने की एक छोटी सी दुकान कर ली। मां मोंटेसरी प्रशिक्षित अध्यापिका तो थीं ही, पर पति का हाथ बंटाने के लिए घर से ही सौदे की बिक्री का काम संभाल कर घर की आय में भी अपनी मेहनत से इज़ाफ़ा करने लगीं ताकि बच्चियां अच्छी तरह पढ़ - लिख सकें।
छोटी बेटी को अब तक स्कूल न भेज पाने का दंश तो किसी तरह बेटी ने अपनी बुद्धिमत्ता से धो ही दिया था, और अब वो अपनी उम्र से कहीं अधिक ऊंची क्लास में प्रवेश पा गई थी।
बड़ी - बेटी पढ़ने - लिखने में तो साधारण ही थी पर दोनों बहनों के चेहरे- मोहरे में समानता अवश्य थी।
छोटी बेटी वडाला के ऑग्जिलियम कॉन्वेंट स्कूल में पढ़ने लगी। बच्ची पढ़ाई में तो तेज़ थी ही, उसे स्कूल की अन्य गतिविधियों में शामिल होने का भी बेहद शौक़ था। डांस के कार्यक्रमों में भाग लेती, नाटकों में भी आगे रहती और पढ़ाई में भी।
खुद बच्ची के पिता भी मन ही मन एक्टिंग का शौक़ रखते थे जो कभी पूरा तो नहीं हो पाया पर उनके इस शौक़ की छाया उनकी बिटिया पर ज़रूर पड़ी।
हां, बच्चों के चाचा ज़रूर एक एक्टर थे और फ़िल्मों में छोटी - मोटी भूमिकाएं निभाते रहते थे। मुंबई में आ बसने के पीछे शायद परिवार की इस ख्वाहिश का हाथ भी रहा हो।
इस छोटी बेटी का नाम अंजलि था।
पढ़ने में तेज़ लेकिन चुलबुली और शरारती ये लड़की स्कूल की हर गतिविधि में आगे रहती थी। किसी शैतानी पर जब टीचर की डांट पड़ती तो झट कह देती - सर, मेरी एक जुड़वां हमशक्ल बहन भी है, शरारत उसने की होगी। टीचर हैरान रह जाते।
सुन्दर,गोरी और लंबी ये लड़की जल्दी ही विद्यार्थियों के बीच लोकप्रिय हो गई।
इसे नाटकों में भाग लेने का बड़ा शौक था। अभिनय में ख़ूब मन रमता। लड़की चालाक भी थी। अपने पापा से कहती, मैं आपका हाथ बंटाने के लिए कोई नौकरी करूंगी, आप और मम्मी पैसा कमाने में बहुत मेहनत करते हैं।
पापा खुश हो जाते।
लड़की ने पापा को बताया कि उसे कोलाबा में टाइपिस्ट की पार्ट टाइम नौकरी मिली है, और पापा ने उसे वहां जाने की इजाज़त दे दी। इससे दो फ़ायदे हुए, हाथ में अपने खर्च के लायक पैसे आने लगे और इस बहाने घर से बाहर जाकर नाटकों में काम करने और रिहर्सल करने का मौक़ा भी मिलने लगा।
उधर लड़की के चाचा तो फ़िल्मों में छोटे - मोटे रोल कर ही रहे थे, लड़की के पापा को भी फ़िल्मों का क्रेज़ था। मुंबई में रहने वालों के लिए फिल्में कोई अजूबा नहीं होती थीं और फ़िल्मों से जुड़े लोगों से भी जान पहचान हो जाना साधारण सी बात थी।
अंजलि के पापा उन दिनों बांग्ला अभिनेत्री साधना बोस से काफी प्रभावित थे और उन्हें पसंद भी करते थे।
बिटिया की एक्टिंग के प्रति तड़प और रुझान देख उन्होंने उसका नाम भी बदल कर साधना ही रख दिया।
साधना बोस को उनके बंगाली होने के चलते साधोना बोला जाता था, तो पिता ने पाकिस्तान से आने के बाद जब बिटिया का नाम बदला तो साधोना ही लिखवा दिया।
लेकिन पूछने पर वह अपना नाम साधना ही बताती, और यही नाम प्रचलित हो गया। बेटी की सहेलियां उसे साधना ही कहती थीं।
उन दिनों दो नाटकों में भी उसे काम मिला। एक नाटक था "औरत का इत्र" और दूसरा "मान न मान"। साधना का कद बचपन से ही बहुत अच्छा ऊंचा था, और बदन गोरा चिट्टा। उसकी छवि सैकड़ों लड़कियों के बीच भी अलग ही नज़र आती। खास कर लंबी लड़कियों के मामले में ये देखा जाता है कि उनकी टांगें ही ज़्यादा लंबी होती हैं जिससे उनकी हाइट अच्छी दिखाई देती है। लेकिन साधना का मामला ही अलग था। उसकी कद काठी ही लंबी थी जो दूर से भी देखने पर, या उसके बैठने पर भी व्यक्तित्व में चार चांद लगा देती थी।
एक दिन उनके विद्यालय में पता चला कि किसी फ़िल्म कम्पनी के लोग आए हैं, और उन्हें एक पिक्चर के गाने की शूटिंग के समय हीरोइन के साथ ग्रुप के रूप में कुछ छोटी लड़कियों की ज़रूरत है।
साधना सुन्दर और लंबी ज़रूर थी पर उसकी उम्र अभी बहुत कम ही थी।
लड़कियों के किसी समूह को देखने यदि कुछ पुरुषों या युवा लड़कों का झुण्ड खड़ा हो तो ये संभव ही नहीं था कि वो लड़कियों के बीच खड़ी साधना की अनदेखी कर दे। बल्कि उन युवकों ने तो उन्हें वहां भेजने वाले प्रोड्यूसर की बात की अनदेखी कर दी। उन्हें कहा गया था कि छोटी लड़कियों का ही चयन करें,पर उन्होंने सबसे पहले साधना की ओर ही इशारा कर दिया।
निर्माता के उन्हें ऐसा कहने के पीछे शायद ये भावना थी कि फ़िल्म की हीरोइन कुछ छोटे कद की थी, और वो ये नहीं चाहता था कि समूह में कोई हीरोइन को छोड़ कर किसी और लड़की की ओर देखे।
फ़िल्मों की शूटिंग के दौरान इस बात का ध्यान डायरेक्टर द्वारा बहुत बारीकी से रखा जाता था कि चाहे लड़के हों या लड़कियां, वे किसी भी दृश्य में हीरो या हीरोइन से ज़्यादा दिलकश और हसीन न दिखें।
ऐसा होने पर हीरो या हीरोइन उन्हें शूटिंग से निकलवा देते थे, और फ़िर बाद में डायरेक्टर को अपने स्टारों के कारण जूनियर कलाकारों की यूनियन के विरोध या क्रोध का सामना करना पड़ता था।
एक्स्ट्रा कलाकारों का ये दुर्भाग्य होता था कि बड़े स्टारों की इसी ईर्ष्या के चलते कई सुन्दर लड़कियों और लड़कों को काम से हाथ धोना पड़ जाता था। जबकि कैमरे का फोकस पूरी तरह बड़े कलाकारों पर ही केन्द्रित रहता था।
किन्तु चयन करने के लिए आए लोग इस लड़की के सौंदर्य और चंचलता से इतने अभिभूत हुए कि बिना कोई आगा पीछा सोचे एक समूह गीत के फिल्मांकन के लिए अन्य लड़कियों के साथ - साथ साधना को भी चुन कर चले गए।
अगले दिन घर पर बिना बताए साधना सेट पर पहुंची। लेकिन वहां जाकर साधना को पता चला कि चाचा हरि शिवदासानी भी इस फ़िल्म में एक छोटा सा किरदार निभा रहे हैं।
एक बार उसे डर लगा कि वो यहां देख लेंगे तो डांटेंगे। वो घर से पूछ कर भी तो नहीं आई थी। कहीं चाचा ने पापा को बता दिया तो? पापा कहीं नाराज़ न हों।
लेकिन पापा की लाडली बेटी को मन ही मन ये भरोसा भी था कि पापा अपनी साधोना बिटिया से गुस्सा नहीं हो सकते। फ़िर फ़िल्म के सेट पर आई लड़की जो एक्टिंग का सपना देखती थी, वापस कैसे लौट जाती। साधना ने मन से डर को निकाल दिया।
वहां उनका सामना अपने चाचा से भी हुआ पर वो तब वापस जाने के लिए निकल ही रहे थे।
साधना को और कुछ लड़कियों के साथ देख कर वो यही समझे कि बच्चियां शायद शूटिंग देखने चली आई हैं। वे मुस्कराते हुए बाहर निकल गए।
साधना ने राहत की सांस ली।
असल में स्टूडियो में जिस फ़िल्म के प्रोडक्शन का काम चल रहा था उसका नाम था श्री चार सौ बीस! फ़िल्म के हीरो थे राज कपूर।
इसी फ़िल्म में एक समूह गीत फिल्माया जाना था और कलाकारों का अंतिम रूप से चयन हो जाने के बाद डांस का लंबा रिहर्सल होना था।
साधना को भय था कि पापा को अगर कहीं से इस बात की खबर लग गई तो वो नाराज़ होंगे। हालांकि वो ये भी जानती थी कि यदि वो खुद ही पहले जाकर इस बारे में पापा को बता देगी, और उनसे अनुमति मांगेगी तो वो कभी मना नहीं करेंगे।
साधना ने डांस डायरेक्टर के निर्देशन में गाने का रिहर्सल किया और उन्हें अपने स्टेप्स व छवि से इतना प्रभावित किया कि साधना को काफ़ी आगे हीरोइन के एकदम करीब खड़े होने की जगह दी गई।
इस जगह खड़े होने से कैमरे में प्रमुखता से आने का पूरा मौक़ा था और हीरोइन के फ़्रेम में होने पर तो सीन काटे जाने का खतरा भी नहीं था। अलबत्ता ये खतरा ज़रूर था कि हीरोइन इतनी ख़ूबसूरत लड़की को अपने इतना नज़दीक खड़े करने पर बिदक न जाए, और उसकी जगह बदलवा न दे।
पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। क्योंकि इस फ़िल्म में नायिका के रूप में नरगिस के होते हुए भी ये गाना फ़िल्म की सहनायिका नादिरा पर फिल्माया गया। नादिरा के बारे में कहा जाता था कि वे खिलंदड़ी तबीयत की बेहद दरिया दिल एक्ट्रेस थीं और जूनियर कलाकारों के लिए बहुत ही कॉपरेटिव थीं। उन्होंने किसी को सेट से हटवाना नहीं सीखा था, बल्कि वो नए कलाकारों को प्रोत्साहित करके उनका हौसला ही बढ़ाती थीं। मज़े की बात ये कि फ़िल्मों में नादिरा ने ज़्यादातर तुनकमिजाज, कुटिल और ईर्ष्यालु खलनायिका के रोल निभाए।
कहावत है कि जल में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं करना चाहिए, पर नादिरा ने ज़्यादातर जल में रहकर मगर से ही बैर पाला। मतलब वो अधिकांश फ़िल्मों में हीरोइनों से ही टक्कर लेकर चाल चलती थीं।
गीत कोरस था। शूटिंग हो गई। ये फ़िल्म के पर्दे पर साधना को मिला ज़िन्दगी का पहला मौक़ा सिद्ध हुआ।
साधना के ताज़ा फूल से चेहरे ने कोरस में भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
साधना बाल सुलभ चंचलता से फ़िल्मों में काम करने की अपनी ख्वाहिश को और भी शिद्दत से पोसती रही। देखते- देखते साधना की स्कूली शिक्षा पूरी हुई। इसी बीच उसे एक और गीत में समूह डांस में खड़े होने का मौक़ा मिला, लेकिन उसमें फ़िल्म के संपादन के दौरान वो दृश्य हटा दिया गया जिसमें साधना थी।
वो गीत था "रमैया वस्तावैया, मैंने दिल तुझको दिया"।
लेकिन साधना को इस बात का मलाल ज़रूर हुआ क्योंकि बाद में वो गीत बहुत पॉपुलर हुआ और फ़िल्म भी ज़बरदस्त हिट हुई।
साधना कॉलेज में आ गई। उसने मुंबई, जो तब बंबई के नाम से दुनिया भर में जाना जाता था, के जय हिन्द कॉलेज में प्रवेश ले लिया।
साधना शिद्दत से इस सपने को पाल कर जीवन में आगे बढ़ने लगी कि उसे फ़िल्म एक्ट्रेस ही बनना है।
साधना का परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आया था। वो सिंधी थी। देश के विभाजन के बाद ज़्यादातर फिल्मी लोग पाकिस्तान से आए कलाकारों को फिल्मों में काम दे रहे थे। इसके कई कारण थे। वहां से आने वाले ज़्यादातर लोग चेहरे- मोहरे और कद- काठी में कश्मीरी लोगों की तरह खूबसूरत तो होते ही थे, जलावतन होने की कशिश ने उन्हें जज़बाती भी बना छोड़ा था। ये इमोशंस को चेहरे पर लाने में माहिर माने जाते थे। अपने ज़र - ज़मीन को खो देने के बाद फ़िर मुकाम ढूंढने की मुहिम इन्हें जीवंत बनाती थी।
निर्माता- निर्देशकों और नायकों में भी पंजाब के लोगों का बोलबाला था, जिसका आधा भाग पाकिस्तान में ही था, और बाकी आधा पाकिस्तान की सरहद से लगा हुआ था।
देखने में ही नहीं, बल्कि अपनी मेहनत, जुझारूपन और मुकाम पाने के ज़ुनून को शिद्दत से कायम रखने का जज़्बा भी अपने मुल्क से बेदखल हुए इन खानाबदोशों सरीखे लोगों में ज्यादा था। पूर्वी पाकिस्तान के बंगाल से आए कई खानदान भी फ़िल्म जगत में अच्छे - खासे पनपे। बंगाल के कुछ परिवारों का यहां दबदबा था।
उम्र के सोलहवें साल में कदम रखती साधना का नाटकों में काम करना, फ़िल्मों में भूमिका पाने का प्रयास करना और डांस सीखने का अभ्यास करना जारी रहा।
वो श्री चार सौ बीस के कोरस "मुड़ मुड़ के ना देख, मुड़ मुड़ के..." के बाद अपनी सखी - सहेलियों के बीच और भी लोकप्रिय हो गई। सायन के अपने घर के आसपास की बस्ती में, अपने मोहल्ले में अपने मीठे और मिलनसार स्वभाव के कारण साधना की छवि और निखरती गई। आते - जाते हुए लोग उसे देख कर मन ही मन भरोसा करने लग जाते कि ये लड़की एक दिन ज़रूर कुछ बड़ा करेगी।
तभी एक सिंधी निर्माता ने मुंबई में एक सिंधी फ़िल्म बनाने का इरादा किया। फ़िल्म का नाम था "अबाना"। ये फ़िल्म देश के बंटवारे की त्रासदी पर आधारित थी। अबाना पुश्तैनी मकान या ठिकाने को कहते हैं।
पता लगते ही साधना ने अपने कुछ फोटोग्राफ उस फ़िल्म के लिए भेज दिए। कलाकारों का चयन शुरू हुआ। साधना को पूरी उम्मीद थी कि उसके फोटो को देख कर उसे किसी न किसी भूमिका के लिए बुलावा ज़रूर आयेगा।
ऐसा ही हुआ, अबाना के प्रोड्यूसर को फोटो तो पसंद था ही, जब ये पता चला कि लड़की सिंधी परिवार से ही है, तो बात बन गई। वैसे भी कहानी का जो मर्म था, वो तो साधना के परिवार ने स्वयं झेला था।
साधना को हीरोइन की छोटी बहन की वजनदार भूमिका के लिए चुन लिया। फ़िल्म की कहानी की मांग के मुताबिक़ सोलह साल की लड़की को नायिका के रोल के लिए नहीं चुना जा सकता था, लिहाज़ा बहन के सेकंड लीड किरदार के लिए उसे चुन लिया गया।
वैसे तो फिल्मी दुनिया में ये परंपरा कभी नहीं रही कि किसी भूमिका के लिए किरदार की कहानी के अनुसार वांछित आयु के कलाकारों को ही चुना जाए। यहां कई बड़ी उम्र के स्टारों ने छोटी उम्र की भूमिकाएं की हैं,और इसी तरह कलाकारों ने अपनी आयु से अधिक के किरदार मेकअप के सहारे निभाए हैं। किन्तु अबाना एक छोटे बजट की प्रादेशिक फ़िल्म थी, इसलिए इसमें ज़्यादा प्रयोग शीलता की गुंजाइश नहीं थी।
शीला रमानी इस फ़िल्म की हीरोइन थी। आमतौर पर खूबसूरत अभिनेत्री को कॉम्प्लीमेंट्स लड़कों या पुरुषों की ओर से मिलते हैं पर यहां साधना को देख कर शीला रमानी ने टिप्पणी की, कि ये लड़की फ़िल्म आकाश में बहुत ऊंचाई तक चमकेगी।
यहां तक कि साधना ने अपनी नायिका से एक अवसर पर सेट पर जब ऑटोग्राफ मांगे तो शीला रमानी ने ये कहते हुए साधना को अपने ऑटोग्राफ दिए - तुम मुझसे क्या हस्ताक्षर मांग रही हो, तुम्हारे ऑटोग्राफ तो खुद एक दिन ज़माना झूम कर लेगा।
संकोची स्वभाव की साधना शरमा कर रह गई।
अबाना के बजट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है इस फ़िल्म के लिए साधना को निर्माता की ओर से टोकन मनी के रूप में एक रुपया दिया गया।
शायद निर्माता का सोचना ये था कि कोई सिंधी लड़की किसी सिंधी फ़िल्म में काम तो अपनी इच्छा से करेगी और एक तरह से इसे अपने समाज के लिए सेवा कार्य मानेगी। वहां रुपए पैसे की बात आ ही नहीं सकती।
पर फ़िल्म जगत के जानकारों का मानना था कि इस तरह से फिल्मकार कलाकारों को इमोशनल दबाव बनाकर काम करा ले जाते हैं।
जो भी था, फ़िल्म काफी सफ़ल रही और साधना अपने स्वप्न की ओर एक कदम और आगे बढ़ गई।
इस फ़िल्म की चर्चा रही और सिने पत्रिका "स्क्रीन" में साधना का एक फोटो छपा जिस पर पड़ी एक निगाह ने इस उगते सूरज के तेज़ से आसमान रंग दिया।
ये निगाह थी फिल्मालय स्टूडियो के मालिक शषधर मुखर्जी की, जिनकी बड़ी और प्रख्यात फ़िल्म निर्माण संस्था तब सुर्खियों में थी।
इन्होंने साधना को अपनी फ़िल्म कंपनी से जुड़ जाने का प्रस्ताव दिया। साधना को इसके लिए साढ़े सात सौ रुपए मासिक वेतन का प्रस्ताव दिया गया, जो उस समय को देखते हुए एक बड़ी रकम थी।
साधना वैसे भी एक समझदार और ज़िम्मेदार बेटी की तरह अपने परिवार की चिंता करती थी, और उसके खर्चों में हाथ बंटाना चाहती थी, इस प्रस्ताव ने उसके लिए कोई लॉटरी लग जाने जैसा काम किया।
वे अन्य कई मशहूर कलाकारों की तरह फिल्मालय से जुड़ गईं।
कंपनी की ओर से एक फ़िल्म के निर्माण की घोषणा हुई जिसके निर्देशक नासिर हुसैन थे। इसके तुरंत बाद ही कंपनी ने दूसरी फ़िल्म "लव इन शिमला" की घोषणा की। इस फ़िल्म का निर्देशन आर के नय्यर को सौंपा गया।
शषधर मुखर्जी जो फिल्मी हल्कों में एस मुखर्जी के नाम से विख्यात थे, चाहते थे कि इस फ़िल्म से साधना को हिंदी फ़िल्म हीरोइन के रूप में ब्रेक दिया जाय।
ये पड़ाव साधना की ज़िन्दगी में एक बेहद महत्वपूर्ण मुकाम होने जा रहा था। इस पड़ाव की पटकथा और किसी ने नहीं, बल्कि विधाता ने शायद खुद लिखी थी। इस पड़ाव की धूप, इस पड़ाव की छांव ताजिंदगी साधना के जीवन पर पड़ी।
ऊपर वाले की लिखी इस पटकथा में ज़बरदस्त ढंग से उलझे हुए पेंचोखम थे।
इस फ़िल्म के माध्यम से एस मुखर्जी पहली बार अपने लाड़ले पुत्र जॉय मुखर्जी को हीरो के तौर पर लॉन्च करने जा रहे थे। छः फुट ऊंचाई वाले बेहद स्मार्ट और प्रशिक्षित इस गोरे चिट्ठे नौजवान के साथ नायिका के तौर पर पांच फुट साढ़े छह इंच लंबी, अप्सरा सी ख़ूबसूरत साधना को उन्होंने राम जाने क्या सोच कर पसंद किया था,किन्तु ये फ़िल्म उनके लिए जीवन का एक बड़ा और महत्वाकांक्षी सपना बन गई।
न पैसे की कोई कमी थी, न उत्साह की, न इरादों की।
उनकी कंपनी का नासिर हुसैन के निर्देशन में शम्मी कपूर के साथ आशा पारेख को लॉन्च करने का ख़्वाब भी मनमाफिक परवान चढ़ा था, इसलिए इरादे और वांछना बुलंदियों पर थी और एक भव्य सुनहरा आगाज़ भविष्य के गर्भ में था।
इधर एक और लहर "लव इन शिमला" के युवा निर्देशक आर के नय्यर के दिल में किसी ज्वार की तरह उठ रही थी और वो अपनी नायिका सर्वांग सुंदरी रूपवती साधना के आकर्षण में अपने को बंधा पा रहे थे। वे जवान होने के साथ साथ पर्याप्त हैंडसम भी थे। वे साधना के प्रेम में पड़ चुके थे।
एक निर्देशक की पैनी - चौकन्नी निगाह से उन्होंने ये भी भांप लिया था कि मुखर्जी परिवार के चश्मे - चिराग़ को फिल्माकाश में चमकाने के ये प्रयास साधना को भी मुखर्जी परिवार का नयनतारा बनाए हुए हैं। उसकी लॉन्चिंग की भव्य तैयारी हो रही थी।
ऐसे में उन्होंने अपनी जागीर बचाने के ख़्याल से बेज़ार होकर एक पांसा फेंका। उन्होंने एस मुखर्जी के सामने प्रस्ताव रखा कि लव इन शिमला फ़िल्म में साधना के अपोज़िट नए आए अभिनेता संजीव कुमार को अवसर देना अच्छा रहेगा।
लेकिन मुखर्जी साहब ने ये कहकर उनका प्रस्ताव दरकिनार कर दिया कि वो संजीव कुमार को जल्दी ही कोई और चांस देंगे। उनके खयालों में तो जॉय मुखर्जी और साधना की करामाती, रब ने बनाई जोड़ी छाई हुई थी।
"लव इन शिमला" शुरू हो गई। उस ज़माने में कलाकारों के अलग अलग एंगल्स से ढेरों स्क्रीन टेस्ट होते थे, वॉइस टेस्ट होते थे। साधना को भी इस सब से गुजरना पड़ा। उनके कई प्रशिक्षण हुए। छायाकारों को लगा कि साधना का रंग एक तो वैसे ही संगमरमरी सफ़ेद है, उस पर चौड़ा माथा और भी उन्हें इस तरह उभारता है कि स्क्रीन शेयरिंग के समय नायक का व्यक्तित्व उनके सामने दब कर रह जाता है।
उनके बालों को लेकर काफ़ी सोच विचार के बाद एक नया प्रयोग करने की ठानी गई। मशहूर हॉलीवुड अभिनेत्री ऑड्रे हेपबर्न के बालों की तरह उनके बालों को बीच से दो भागों में बांट कर, कुछ ट्रिमिंग के साथ माथे पर छितराया गया।
देखने वालों ने दांतों तले अंगुली दबा ली।
इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान निर्देशक आर के नय्यर के मन में साधना के लिए कोमल भावनाएं धीरे धीरे गहरे प्यार में बदलने लगीं और फ़िल्म को मिली बड़ी सफ़लता से अभिभूत साधना ने उल्लास में जो कृतज्ञता प्रकट की उसे प्रथम दृष्टया साधना का नय्यर के लिए प्रेम ही माना गया।
वस्तुस्थिति ये थी कि साधना अपने ख़्वाब के इश्क़ में थी उन दिनों।
लव इन शिमला जैसी हल्की- फुल्की प्रेम कहानी में भी बिमल रॉय जैसे रचनात्मक फिल्मकार ने साधना के अभिनय की चिंगारियों की तपिश देख ली और तत्काल उसके साथ अपनी फ़िल्म "परख" शुरू कर दी।
एक सीधी सादी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी परख एक असरदार फ़िल्म थी। साधना से काम कराते समय बिमल रॉय हमेशा साधना को चेहरे के भाव भंगिमा निरूपण के लिए नूतन का उदाहरण दिया करते थे। नूतन ने सुजाता, बंदिनी जैसी फ़िल्मों में अभिनय के नए प्रतिमान गढ़े भी थे।
नतीज़ा ये हुआ कि नूतन साधना की पसंदीदा अभिनेत्री बन गईं। साधना अभिनय में उन्हें अपना आदर्श मानने लगी।
लव इन शिमला की कामयाबी के बाद मुखर्जी साहब ने ये भांप लिया कि साधना को लेकर अपने बेटे जॉय के जिस भविष्य के वो सपने देख रहे थे, वो भावनाएं परवान नहीं चढ़ सकीं।
मंद -मंद बहती हवा में बहते किसी परिंदे के कोमल पर की तरह ही बहता हुआ साधना के भविष्य का एक संभावित "गॉड फादर" धीरे- धीरे दृश्य से ओझल हो गया।
बिमल रॉय जैसे निर्देशक का भरोसा इतनी छोटी उम्र में हासिल कर लेना साधना के लिए एक बहुत बड़ी बात थी। परख एक मूल्य प्रधान फ़िल्म थी। जिसके लिए साधना जैसी खूबसूरत और ग्लैमरस अभिनेत्री को बिमल रॉय ने चुना तो सिर्फ़ इसलिए कि रॉय को साधना में एक नई और ताज़गी भरी नूतन दिखाई दी। साधना के अभिनय में वो सब था जो नूतन ने अब तक अपनी फ़िल्मों में प्रदर्शित करके दर्शकों का दिल जीता, लेकिन उसके साथ- साथ साधना के पास सांचे में ढला चुंबकीय व्यक्तित्व भी था जो बिमल रॉय की विलक्षण समझ को एक पूर्णता गढ़ने का आश्वासन देता प्रतीत होता था।
परख में साधना का चयन एक संयोग मात्र नहीं था। बल्कि अपने हेयर स्टाइल से युवाओं का आदर्श बन चुकी साधना के ग्लैमर को इस सादगीपूर्ण फ़िल्म में काबू में रखना बिमल रॉय के लिए एक चुनौती थी। साधना के लोकप्रिय हेयर स्टाइल को इसमें क्लिप्स के सहारे नियंत्रित करके उसके चेहरे पर ग्रामीण सादगी उभारी गई। इस फ़िल्म में साधना के काम को काफ़ी सराहना मिली। इसका क्लासिकल गीत "ओ सजना, बरखा बहार आई" उसकी चुलबुली और गहरी आंखों के शीशे में उतरी जुंबिश में डबडबा कर बहुत लोकप्रिय हुआ।
बिमल रॉय ने अपनी अगली फिल्म "प्रेमपत्र" में फ़िर से साधना को ही चुना। इसमें वो शशि कपूर के साथ कास्ट की गई।
लव इन शिमला,परख और प्रेमपत्र तीनों अलग प्रकार की फ़िल्में थीं। बल्कि फ़िल्मों के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि ये तीन फ़िल्में अभिनय के तीन अलग अलग स्कूलों का प्रोडक्शन थीं, जिनका कथानक, प्रस्तुति और प्रभाव तीनों बिल्कुल अलग अलग था। एक ही अभिनेत्री का इन तीनों फ़िल्मों में काम कर लेना, वास्तव में एक अद्भुत घटना थी।
ऐसा सिर्फ इसलिए हो पाया, क्योंकि साधना की अभिनय रेंज ज़बरदस्त ढंग से विस्तृत थी। नूतन और नरगिस की भाव प्रवणता साधना के यहां मानो मधुबाला और वैजयंती माला के सौंदर्य से मिल कर एकाकार हो गई थी।
फिल्मालय की व्यावसायिकता, बिमल रॉय की मध्यम वर्गीय सिनेमा की अवधारणा से एकाकार हो गई थी।
इन तीन शुरुआती फ़िल्मों से सिद्ध हो गया कि साधना के पास एक अभिनेत्री के रूप में असीमित कैनवस, भूमिकाओं को चुनने की आधुनिक परिपक्व सोच और पर्दे पर अपनी छवि को मनचाही सीमा तक बदल पाने की अद्भुत क्षमता है।
फ़िल्मों को नई नाटकीय भूमिकाओं के लिए एक उच्च कोटि की नायिका मिल गई।
साधना का परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत से आया था। वो सिंधी थी। देश के विभाजन के बाद ज़्यादातर फिल्मी लोग पाकिस्तान से आए कलाकारों को फिल्मों में काम दे रहे थे। इसके कई कारण थे। वहां से आने वाले ज़्यादातर लोग चेहरे- मोहरे और कद- काठी में कश्मीरी लोगों की तरह खूबसूरत तो होते ही थे, जलावतन होने की कशिश ने उन्हें जज़बाती भी बना छोड़ा था। ये इमोशंस को चेहरे पर लाने में माहिर माने जाते थे। अपने ज़र - ज़मीन को खो देने के बाद फ़िर मुकाम ढूंढने की मुहिम इन्हें जीवंत बनाती थी।
निर्माता- निर्देशकों और नायकों में भी पंजाब के लोगों का बोलबाला था, जिसका आधा भाग पाकिस्तान में ही था, और बाकी आधा पाकिस्तान की सरहद से लगा हुआ था।
देखने में ही नहीं, बल्कि अपनी मेहनत, जुझारूपन और मुकाम पाने के ज़ुनून को शिद्दत से कायम रखने का जज़्बा भी अपने मुल्क से बेदखल हुए इन खानाबदोशों सरीखे लोगों में ज्यादा था। पूर्वी पाकिस्तान के बंगाल से आए कई खानदान भी फ़िल्म जगत में अच्छे - खासे पनपे। बंगाल के कुछ परिवारों का यहां दबदबा था।
उम्र के सोलहवें साल में कदम रखती साधना का नाटकों में काम करना, फ़िल्मों में भूमिका पाने का प्रयास करना और डांस सीखने का अभ्यास करना जारी रहा।
वो श्री चार सौ बीस के कोरस "मुड़ मुड़ के ना देख, मुड़ मुड़ के..." के बाद अपनी सखी - सहेलियों के बीच और भी लोकप्रिय हो गई। सायन के अपने घर के आसपास की बस्ती में, अपने मोहल्ले में अपने मीठे और मिलनसार स्वभाव के कारण साधना की छवि और निखरती गई। आते - जाते हुए लोग उसे देख कर मन ही मन भरोसा करने लग जाते कि ये लड़की एक दिन ज़रूर कुछ बड़ा करेगी।
तभी एक सिंधी निर्माता ने मुंबई में एक सिंधी फ़िल्म बनाने का इरादा किया। फ़िल्म का नाम था "अबाना"। ये फ़िल्म देश के बंटवारे की त्रासदी पर आधारित थी। अबाना पुश्तैनी मकान या ठिकाने को कहते हैं।
पता लगते ही साधना ने अपने कुछ फोटोग्राफ उस फ़िल्म के लिए भेज दिए। कलाकारों का चयन शुरू हुआ। साधना को पूरी उम्मीद थी कि उसके फोटो को देख कर उसे किसी न किसी भूमिका के लिए बुलावा ज़रूर आयेगा।
ऐसा ही हुआ, अबाना के प्रोड्यूसर को फोटो तो पसंद था ही, जब ये पता चला कि लड़की सिंधी परिवार से ही है, तो बात बन गई। वैसे भी कहानी का जो मर्म था, वो तो साधना के परिवार ने स्वयं झेला था।
साधना को हीरोइन की छोटी बहन की वजनदार भूमिका के लिए चुन लिया। फ़िल्म की कहानी की मांग के मुताबिक़ सोलह साल की लड़की को नायिका के रोल के लिए नहीं चुना जा सकता था, लिहाज़ा बहन के सेकंड लीड किरदार के लिए उसे चुन लिया गया।
वैसे तो फिल्मी दुनिया में ये परंपरा कभी नहीं रही कि किसी भूमिका के लिए किरदार की कहानी के अनुसार वांछित आयु के कलाकारों को ही चुना जाए। यहां कई बड़ी उम्र के स्टारों ने छोटी उम्र की भूमिकाएं की हैं,और इसी तरह कलाकारों ने अपनी आयु से अधिक के किरदार मेकअप के सहारे निभाए हैं। किन्तु अबाना एक छोटे बजट की प्रादेशिक फ़िल्म थी, इसलिए इसमें ज़्यादा प्रयोग शीलता की गुंजाइश नहीं थी।
शीला रमानी इस फ़िल्म की हीरोइन थी। आमतौर पर खूबसूरत अभिनेत्री को कॉम्प्लीमेंट्स लड़कों या पुरुषों की ओर से मिलते हैं पर यहां साधना को देख कर शीला रमानी ने टिप्पणी की, कि ये लड़की फ़िल्म आकाश में बहुत ऊंचाई तक चमकेगी।
यहां तक कि साधना ने अपनी नायिका से एक अवसर पर सेट पर जब ऑटोग्राफ मांगे तो शीला रमानी ने ये कहते हुए साधना को अपने ऑटोग्राफ दिए - तुम मुझसे क्या हस्ताक्षर मांग रही हो, तुम्हारे ऑटोग्राफ तो खुद एक दिन ज़माना झूम कर लेगा।
संकोची स्वभाव की साधना शरमा कर रह गई।
अबाना के बजट का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है इस फ़िल्म के लिए साधना को निर्माता की ओर से टोकन मनी के रूप में एक रुपया दिया गया।
शायद निर्माता का सोचना ये था कि कोई सिंधी लड़की किसी सिंधी फ़िल्म में काम तो अपनी इच्छा से करेगी और एक तरह से इसे अपने समाज के लिए सेवा कार्य मानेगी। वहां रुपए पैसे की बात आ ही नहीं सकती।
पर फ़िल्म जगत के जानकारों का मानना था कि इस तरह से फिल्मकार कलाकारों को इमोशनल दबाव बनाकर काम करा ले जाते हैं।
जो भी था, फ़िल्म काफी सफ़ल रही और साधना अपने स्वप्न की ओर एक कदम और आगे बढ़ गई।
इस फ़िल्म की चर्चा रही और सिने पत्रिका "स्क्रीन" में साधना का एक फोटो छपा जिस पर पड़ी एक निगाह ने इस उगते सूरज के तेज़ से आसमान रंग दिया।
ये निगाह थी फिल्मालय स्टूडियो के मालिक शषधर मुखर्जी की, जिनकी बड़ी और प्रख्यात फ़िल्म निर्माण संस्था तब सुर्खियों में थी।
इन्होंने साधना को अपनी फ़िल्म कंपनी से जुड़ जाने का प्रस्ताव दिया। साधना को इसके लिए साढ़े सात सौ रुपए मासिक वेतन का प्रस्ताव दिया गया, जो उस समय को देखते हुए एक बड़ी रकम थी।
साधना वैसे भी एक समझदार और ज़िम्मेदार बेटी की तरह अपने परिवार की चिंता करती थी, और उसके खर्चों में हाथ बंटाना चाहती थी, इस प्रस्ताव ने उसके लिए कोई लॉटरी लग जाने जैसा काम किया।
वे अन्य कई मशहूर कलाकारों की तरह फिल्मालय से जुड़ गईं।
कंपनी की ओर से एक फ़िल्म के निर्माण की घोषणा हुई जिसके निर्देशक नासिर हुसैन थे। इसके तुरंत बाद ही कंपनी ने दूसरी फ़िल्म "लव इन शिमला" की घोषणा की। इस फ़िल्म का निर्देशन आर के नय्यर को सौंपा गया।
शषधर मुखर्जी जो फिल्मी हल्कों में एस मुखर्जी के नाम से विख्यात थे, चाहते थे कि इस फ़िल्म से साधना को हिंदी फ़िल्म हीरोइन के रूप में ब्रेक दिया जाय।
ये पड़ाव साधना की ज़िन्दगी में एक बेहद महत्वपूर्ण मुकाम होने जा रहा था। इस पड़ाव की पटकथा और किसी ने नहीं, बल्कि विधाता ने शायद खुद लिखी थी। इस पड़ाव की धूप, इस पड़ाव की छांव ताजिंदगी साधना के जीवन पर पड़ी।
ऊपर वाले की लिखी इस पटकथा में ज़बरदस्त ढंग से उलझे हुए पेंचोखम थे।
इस फ़िल्म के माध्यम से एस मुखर्जी पहली बार अपने लाड़ले पुत्र जॉय मुखर्जी को हीरो के तौर पर लॉन्च करने जा रहे थे। छः फुट ऊंचाई वाले बेहद स्मार्ट और प्रशिक्षित इस गोरे चिट्ठे नौजवान के साथ नायिका के तौर पर पांच फुट साढ़े छह इंच लंबी, अप्सरा सी ख़ूबसूरत साधना को उन्होंने राम जाने क्या सोच कर पसंद किया था,किन्तु ये फ़िल्म उनके लिए जीवन का एक बड़ा और महत्वाकांक्षी सपना बन गई।
न पैसे की कोई कमी थी, न उत्साह की, न इरादों की।
उनकी कंपनी का नासिर हुसैन के निर्देशन में शम्मी कपूर के साथ आशा पारेख को लॉन्च करने का ख़्वाब भी मनमाफिक परवान चढ़ा था, इसलिए इरादे और वांछना बुलंदियों पर थी और एक भव्य सुनहरा आगाज़ भविष्य के गर्भ में था।
इधर एक और लहर "लव इन शिमला" के युवा निर्देशक आर के नय्यर के दिल में किसी ज्वार की तरह उठ रही थी और वो अपनी नायिका सर्वांग सुंदरी रूपवती साधना के आकर्षण में अपने को बंधा पा रहे थे। वे जवान होने के साथ साथ पर्याप्त हैंडसम भी थे। वे साधना के प्रेम में पड़ चुके थे।
एक निर्देशक की पैनी - चौकन्नी निगाह से उन्होंने ये भी भांप लिया था कि मुखर्जी परिवार के चश्मे - चिराग़ को फिल्माकाश में चमकाने के ये प्रयास साधना को भी मुखर्जी परिवार का नयनतारा बनाए हुए हैं। उसकी लॉन्चिंग की भव्य तैयारी हो रही थी।
ऐसे में उन्होंने अपनी जागीर बचाने के ख़्याल से बेज़ार होकर एक पांसा फेंका। उन्होंने एस मुखर्जी के सामने प्रस्ताव रखा कि लव इन शिमला फ़िल्म में साधना के अपोज़िट नए आए अभिनेता संजीव कुमार को अवसर देना अच्छा रहेगा।
लेकिन मुखर्जी साहब ने ये कहकर उनका प्रस्ताव दरकिनार कर दिया कि वो संजीव कुमार को जल्दी ही कोई और चांस देंगे। उनके खयालों में तो जॉय मुखर्जी और साधना की करामाती, रब ने बनाई जोड़ी छाई हुई थी।
"लव इन शिमला" शुरू हो गई। उस ज़माने में कलाकारों के अलग अलग एंगल्स से ढेरों स्क्रीन टेस्ट होते थे, वॉइस टेस्ट होते थे। साधना को भी इस सब से गुजरना पड़ा। उनके कई प्रशिक्षण हुए। छायाकारों को लगा कि साधना का रंग एक तो वैसे ही संगमरमरी सफ़ेद है, उस पर चौड़ा माथा और भी उन्हें इस तरह उभारता है कि स्क्रीन शेयरिंग के समय नायक का व्यक्तित्व उनके सामने दब कर रह जाता है।
उनके बालों को लेकर काफ़ी सोच विचार के बाद एक नया प्रयोग करने की ठानी गई। मशहूर हॉलीवुड अभिनेत्री ऑड्रे हेपबर्न के बालों की तरह उनके बालों को बीच से दो भागों में बांट कर, कुछ ट्रिमिंग के साथ माथे पर छितराया गया।
देखने वालों ने दांतों तले अंगुली दबा ली।
इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान निर्देशक आर के नय्यर के मन में साधना के लिए कोमल भावनाएं धीरे धीरे गहरे प्यार में बदलने लगीं और फ़िल्म को मिली बड़ी सफ़लता से अभिभूत साधना ने उल्लास में जो कृतज्ञता प्रकट की उसे प्रथम दृष्टया साधना का नय्यर के लिए प्रेम ही माना गया।
वस्तुस्थिति ये थी कि साधना अपने ख़्वाब के इश्क़ में थी उन दिनों।
लव इन शिमला जैसी हल्की- फुल्की प्रेम कहानी में भी बिमल रॉय जैसे रचनात्मक फिल्मकार ने साधना के अभिनय की चिंगारियों की तपिश देख ली और तत्काल उसके साथ अपनी फ़िल्म "परख" शुरू कर दी।
एक सीधी सादी ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी परख एक असरदार फ़िल्म थी। साधना से काम कराते समय बिमल रॉय हमेशा साधना को चेहरे के भाव भंगिमा निरूपण के लिए नूतन का उदाहरण दिया करते थे। नूतन ने सुजाता, बंदिनी जैसी फ़िल्मों में अभिनय के नए प्रतिमान गढ़े भी थे।
नतीज़ा ये हुआ कि नूतन साधना की पसंदीदा अभिनेत्री बन गईं। साधना अभिनय में उन्हें अपना आदर्श मानने लगी।
लव इन शिमला की कामयाबी के बाद मुखर्जी साहब ने ये भांप लिया कि साधना को लेकर अपने बेटे जॉय के जिस भविष्य के वो सपने देख रहे थे, वो भावनाएं परवान नहीं चढ़ सकीं।
मंद -मंद बहती हवा में बहते किसी परिंदे के कोमल पर की तरह ही बहता हुआ साधना के भविष्य का एक संभावित "गॉड फादर" धीरे- धीरे दृश्य से ओझल हो गया।
बिमल रॉय जैसे निर्देशक का भरोसा इतनी छोटी उम्र में हासिल कर लेना साधना के लिए एक बहुत बड़ी बात थी। परख एक मूल्य प्रधान फ़िल्म थी। जिसके लिए साधना जैसी खूबसूरत और ग्लैमरस अभिनेत्री को बिमल रॉय ने चुना तो सिर्फ़ इसलिए कि रॉय को साधना में एक नई और ताज़गी भरी नूतन दिखाई दी। साधना के अभिनय में वो सब था जो नूतन ने अब तक अपनी फ़िल्मों में प्रदर्शित करके दर्शकों का दिल जीता, लेकिन उसके साथ- साथ साधना के पास सांचे में ढला चुंबकीय व्यक्तित्व भी था जो बिमल रॉय की विलक्षण समझ को एक पूर्णता गढ़ने का आश्वासन देता प्रतीत होता था।
परख में साधना का चयन एक संयोग मात्र नहीं था। बल्कि अपने हेयर स्टाइल से युवाओं का आदर्श बन चुकी साधना के ग्लैमर को इस सादगीपूर्ण फ़िल्म में काबू में रखना बिमल रॉय के लिए एक चुनौती थी। साधना के लोकप्रिय हेयर स्टाइल को इसमें क्लिप्स के सहारे नियंत्रित करके उसके चेहरे पर ग्रामीण सादगी उभारी गई। इस फ़िल्म में साधना के काम को काफ़ी सराहना मिली। इसका क्लासिकल गीत "ओ सजना, बरखा बहार आई" उसकी चुलबुली और गहरी आंखों के शीशे में उतरी जुंबिश में डबडबा कर बहुत लोकप्रिय हुआ।
बिमल रॉय ने अपनी अगली फिल्म "प्रेमपत्र" में फ़िर से साधना को ही चुना। इसमें वो शशि कपूर के साथ कास्ट की गई।
लव इन शिमला,परख और प्रेमपत्र तीनों अलग प्रकार की फ़िल्में थीं। बल्कि फ़िल्मों के जानकार तो यहां तक कहते हैं कि ये तीन फ़िल्में अभिनय के तीन अलग अलग स्कूलों का प्रोडक्शन थीं, जिनका कथानक, प्रस्तुति और प्रभाव तीनों बिल्कुल अलग अलग था। एक ही अभिनेत्री का इन तीनों फ़िल्मों में काम कर लेना, वास्तव में एक अद्भुत घटना थी।
ऐसा सिर्फ इसलिए हो पाया, क्योंकि साधना की अभिनय रेंज ज़बरदस्त ढंग से विस्तृत थी। नूतन और नरगिस की भाव प्रवणता साधना के यहां मानो मधुबाला और वैजयंती माला के सौंदर्य से मिल कर एकाकार हो गई थी।
फिल्मालय की व्यावसायिकता, बिमल रॉय की मध्यम वर्गीय सिनेमा की अवधारणा से एकाकार हो गई थी।
इन तीन शुरुआती फ़िल्मों से सिद्ध हो गया कि साधना के पास एक अभिनेत्री के रूप में असीमित कैनवस, भूमिकाओं को चुनने की आधुनिक परिपक्व सोच और पर्दे पर अपनी छवि को मनचाही सीमा तक बदल पाने की अद्भुत क्षमता है।
फ़िल्मों को नई नाटकीय भूमिकाओं के लिए एक उच्च कोटि की नायिका मिल गई।
मुंबई की कलानिकेतन साड़ीशॉप उस समय महानगर की सबसे बड़ी और लोकप्रिय दुकान थी।
एक दोपहरी, न जाने क्या हुआ कि आसपास से सब लोग इस शोरूम के सामने इकट्ठे होने लगे। जिसे देखो, वही कलानिकेतन की ओर देखता हुआ उधर बढ़ने लगा।
देखते- देखते लगभग पांच हजार लोगों की भीड़ वहां इकट्ठी हो गई। भीड़ में युवक भी थे, बूढ़े और महिलाएं भी, और बच्चे भी। धक्का - मुक्की शुरू हो गई। शोरूम के मालिक ने भीतर से जब ये मंज़र देखा तो उसका माथा ठनका। उसकी समझ में नहीं आया कि ये जलजला क्यों उठा।
ये संभव नहीं था कि दरवाज़े से बाहर निकल कर भीड़ के बीच किसी से इस भीड़ के इकट्ठे होने का कारण पूछा जा सके। शोरूम के कीमती शीशे फूट जाने का अंदेशा था। शोरूम का गार्ड भी दरवाज़े से सटा भीड़ के आगे बेबस नज़र आ रहा था।
आख़िर किसी ने पुलिस को फोन कर दिया। शोरूम का मालिक मायूसी से सड़क की ओर देखता पुलिस का इंतजार करने लगा।
चंद पलों में सायरन दनदनाती पुलिस की गाड़ी आ खड़ी हुई। भगदड़ सी मच गई।
आनन- फानन में पुलिस भीड़ को तितर- बितर करती भीतर चली आई।
और तब जाकर शोरूम के मालिक और बाक़ी लोगों को भी सारा माजरा समझ में आया।
फ़िल्म "मेरे मेहबूब" की हीरोइन साधना अपनी मां लाली शिवदासानी के साथ शोरूम में साड़ियां खरीदने आई हुई थी, और वहां बैठी हुई साड़ियां पसंद कर रही थी।
ये भीड़ उसकी एक झलक पाने को बेताब थी।
सब हक्के - बक्के रह गए। खुद साधना भी ये देख कर हैरान रह गई कि ये सारी भीड़ उसकी झलक देखने को जुटी है। पुलिस ने साधना को तत्काल घेरे में लेकर शोरूम के पिछले दरवाजे से बाहर निकाला और अपनी पुलिस कार में बैठा कर उसकी गाड़ी तक पहुंचाया।
लंबी सी पीली सुनहरी गाड़ी में जल्दी- जल्दी दोनों महिलाओं की शॉपिंग के पैकेट्स को उनके ड्राइवर के साथ डिक्की में रखवाते- रखवाते भी एक युवा पुलिसवाला तो साधना के ऑटोग्राफ लेने में भी कामयाब हो गया।
गाड़ी के जाते ही भीड़ छंट तो गई, किन्तु फिज़ाओं में कोई रागिनी सी गूंजती रही... मैंने एकबार तेरी एक झलक देखी है, मेरी हसरत है कि मैं फ़िर तेरा दीदार करूं...!
साधना की एक फ़िल्म किशोर कुमार के साथ भी आई। उसका नाम था - मन मौजी। ये एक हल्की - फुल्की हास्य फ़िल्म थी। इसने दर्शकों पर तो जो असर छोड़ा, वो छोड़ा ही, पर हृषिकेष मुखर्जी जैसे निर्देशक के मुंह से ये ज़रूर कहलवा दिया- नूतन, मीना कुमारी या माला सिन्हा ये नहीं कर सकतीं।
शायद यही कारण था कि तब की फ़िल्म पत्रिकाओं- माधुरी, फिल्मफेयर, स्टार एंड स्टाइल आदि ने साधना को वर्सेटाइल एक्ट्रेस कहते हुए एक दिन इस तथ्य का खुलासा भी प्रमुखता से कर दिया कि वो मौजूदा दौर की सबसे ज़्यादा पैसा लेने वाली हीरोइन है।
लगभग इन्हीं दिनों का एक और किस्सा सुनने को मिलता है जिसे कई अख़बारों ने छापा।
मुंबई में एक "चोर बाज़ार" है। यहां पर कई बार विदेशी आयातित चीज़ें अच्छी और सस्ती मिल जाती हैं। लेकिन ऐसा तभी संभव हो पाता था जब कोई चीज़ों का पारखी हो और उनकी असलियत की पहचान रखता हो।
साधना एक दिन अपनी एक सहेली के साथ इसी बाज़ार में चली गई। सहेली मुस्लिम थी और बुर्का पहने हुए थी। साधना ने भी उसकी तरह बुर्का ही पहन लिया ताकि शांति से अपना काम करके आ सके और भीड़ भाड़ उसे तंग न करे। बुर्का पहनने का सलीका तो मेरे मेहबूब फ़िल्म में हुस्ना का रोल करते समय उसने निर्देशक की देख रेख़ में अच्छी तरह से सीख ही रखा था। बेफिक्र होकर गाड़ी में ड्राइवर के साथ बैठ कर दोनों चल पड़ीं।
चोर बाज़ार की एक छोटी सी दुकान में दोनों कोई चीज़ उलट -पलट कर देख ही रही थीं कि दुकानदार लड़कों में कुछ खुसर फुसर सुनाई दी। साधना के कान खड़े हो गए और वो चौकन्नी होकर इधर - उधर देखने लगी।
फ़िर एकाएक उसने अपनी सहेली का हाथ पकड़ा और लगभग घसीटती हुई उसे लेकर झटपट कार में जा बैठी।
लड़के उसी तरफ देखते हुए इकट्ठे हो गए। उनमें से एक युवक ने कहा- देख, देख मैंने कहा था न, ये साधना है!
कार तो जल्दी से फुर्र हो गई। पर सब लड़के उस युवक से पूछने लगे, तूने कैसे पहचाना?
युवक बताने लगा - मुझे उसकी आवाज़ से पहले थोड़ा शक हुआ, फ़िर मैंने उसकी चप्पल को देखा... यार, मैंने इक्कीस बार देखी थी मेरे मेहबूब। हुस्ना ने जब सड़क पर गिरी किताबें उठाई थीं तो उसकी पैर की अंगुली दिखी थी। उसकी एक अंगुली दूसरी अंगुली पर चढ़ी हुई है। मैं उसका पैर यहां देखते ही पहचान गया।
जब तक उसकी बात पूरी हुई तब तक तो साधना की कार छूमंतर होकर मीलों दूर पहुंच चुकी थी। परन्तु कार में बैठते ही साधना ने हड़बड़ा कर बुर्का उठाते हुए अपनी सहेली को जब सारा वाकया सुनाया तो देखने वालों को एक पल के लिए तो दीदार हो ही गए।
वास्तव में देश भर से मेरे मेहबूब के असर की कहानियां आती ही रहीं।
साधना युवाओं के फैशन आदर्श की तरह स्थापित हो गई। आज भी जब कोई शादी होती है तो आती हुई बारात के सामने जिस तरह "बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है" और विदा होकर जाती हुई बारात के सामने "बाबुल की दुआएं लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले" गाया बजाया जाता है, उसी तरह बारात और घरात के तैयार होते समय साधना के चलाए गए फैशन घर घर प्रचलित हो गए।
लड़कियां घर में तैयार हों या ब्यूटी पार्लर जाकर, बालों का स्टाइल साधना कट ही होने लगा।
बाथरूम में लोग जोड़े से घुसने लगे। लड़कियां चुस्त चूड़ीदार पायजामा पहनने में मदद लेने के लिए अपनी सहेली को अपने साथ बाथरूम में लेकर घुसती थीं। लड़कों की अपनी टांगों से डेढ़ गुना लंबा टाइट चूड़ीदार पायजामा कंधे पर होता और दोस्त साथ में होता। उधर एक दोस्त पायजामा जांघों पर चढ़ा कर हाथों में उसका नाड़ा पकड़े बैठा है और दूसरा दोस्त उकडूं होकर उसकी टांगों पर पायजामे की चूड़ियां चढ़ा रहा है। पर फैशन तो फैशन है, क्या किया जा सकता है।
इस फैशन का आलम देश में ये था कि इतने चुस्त कपड़े तन पर पहने जाते थे, अगर बसों में, कॉलेजों में कुर्ते पर कोई ब्लेड से ज़रा सा कट लगा दे, तो कपड़ा चर्र से चिरता हुआ चला जाए।
एक और फैशन साधना के नाम है। बालों में तरह- तरह के डिजाइनर क्लिप्स, पिंस, ब्रोचेज़ इस्तेमाल करना भी लड़कियों को साधना ने ही सिखाया।
उन्नीस सौ चौंसठ का साल भी साधना के लिए बड़ी हिट फ़िल्मों का पैग़ाम लेकर आया।
एक और विचित्र बात साधना के कैरियर में देखने को मिलती है। ये अब तक तय नहीं हो सका कि इसे साधना की खूबी माना जाए या फ़िर इसे उनकी कमी करार दिया जाए।
जिस तरह हीरो सीनियर होते चले जाने के बाद अपने से छोटी युवा और नई लड़कियों के साथ काम करना पसंद करते हैं, ताकि वे युवा नज़र आ सकें, साधना ने इसके उलट पहले युवा लड़कों के साथ काम किया और बाद में अपने से काफी बड़े पुरुषों के साथ आती रहीं।
ये उनकी स्वाभाविक समझदारी ही कही जानी चाहिए कि वे अपनी आयु के अनुसार जोड़े बनाने में रुचि लेती रहीं।
देवानंद मधुबाला से शुरू होकर आशा पारेख, मुमताज़, ज़ीनत अमान और तब्बू तक जोड़ी बनाते आए।
धर्मेंद्र भी मीना कुमारी, वैजयंती माला, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी से लेकर अनीता राज तक आए।
लेकिन साधना ने पहले शशि कपूर के साथ काम किया, फ़िर शम्मी कपूर के साथ और फिर राजकपूर के साथ। पहले छोटे भाई संजय खान के साथ जोड़ी बनाई और बाद में बड़े भाई फिरोज़ खान के साथ।
इस साल सुपरहिट फिल्म वो कौन थी के बाद साधना और शम्मी कपूर की "राजकुमार" आई। इसने भी एक तरह से पुराने राजे रजवाड़ों के षडयंत्र को उजागर करने वाली फ़िल्मों का चलन शुरू कर दिया। इसी साल राजकपूर और साधना की फ़िल्म "दूल्हा दुल्हन" भी आई जिसमें साधना का डबल रोल था।
ये एक ऐसा समय था जब वैजयंती माला, माला सिन्हा,वहीदा रहमान,आशा पारेख, नंदा की फिल्में भी लगातार ही अा रही थीं और हीरोइनों के बीच कांटे की टक्कर दिखाई दे रही थी। ये सुरीले संगीत का दौर था, अच्छे गीतकार असरदार गीतों की रचना भी लगातार कर रहे थे।
इसे वस्तुतः फ़िल्मों का गोल्डन पीरियड भी कहा जा रहा था और कड़ी मेहनत व स्पर्धा से नए कलाकार भी आ रहे थे, नए फिल्मकार भी। ये सिंगल स्क्रीन थिएटर्स का युग था और युवाओं के शिक्षण केंद्रों के सामने ये बड़ी चुनौती थी कि वो टीन एजर्स को दोपहर के मैटनी शो में स्कूल - कॉलेजों से भाग कर सिनेमा हॉल में जा बैठने से रोकें।
ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों का दौर खत्म हो चुका था। बेहतरीन साउंड सिस्टम, ज़ीरो डिग्री प्रोजेक्शन के सिनेमास्कोप स्क्रीन्स, ईस्टमेन कलर, टेक्नीकलर, गेवा कलर आदि की तकनीकी रंगीनियत फ़िल्मों व फ़िल्मस्टारों को और भी ग्लैमरस बना रही थी।
कुछ फिल्मी खानदानों का दबदबा भी फ़िल्मजगत में कायम होने लगा था। फ़िल्मों के लिए, और फ़िल्मों से, पैसा बरस रहा था। कई बड़े और प्रतिष्ठित पुरस्कार भी फिल्मी लोगों को प्रोत्साहित करने के लिए शुरू हो गए थे। फ़िल्म पत्रिकाओं का रुतबा अख़बारों, राजनैतिक पत्रिकाओं या साहित्यिक पत्रिकाओं से कहीं ज़्यादा असरदार होने लगा था।
एक और बात उस दौर के सिनेमाई लोगों के बारे में दिखाई देती थी। वो फ़िल्म के अलावा अन्य किसी व्यावसायिक दृष्टिकोण की गिरफ्त में नहीं होते थे। उनकी आय प्रायः वही आय होती थी जो उन्हें फ़िल्मों से होती थी। उनकी वही प्रतिष्ठा होती थी जो उन्हें फ़िल्मों से प्राप्त थी।
ऐसा नहीं होता था कि उसके भूमिगत या प्रच्छन्न अन्य कोई कार्य हों, वो कहने को तो फ़िल्म कलाकार हो पर उसकी फ़िल्में न चलने पर भी अपने अन्य कारोबारों से सिने जगत में प्रतिष्ठा पा रहा हो। सिने कलाकारों का एक आत्मीय सम्मान होता था जो उन्हें विश्वसनीय बनाता था। वे जो कहते थे उसका अर्थ होता या माना जाता था। वे विज्ञापन या राजनीति आदि भी नहीं करते थे।
कभी कभी तो स्थिति बड़ी विकट या दारुण हो जाती थी, कि अगर फ़िल्म न चले तो फिल्मकार निर्धन या दिवालिया तक हो जाता था।
ये सरलता जहां सितारों का मान सम्मान बढ़ाती थी वहीं उनके जीवन में एक अस्थिरता भी पैदा करती थी।
दशक के आरंभ में मुंशी प्रेमचंद के जिस कथानक पर फ़िल्म बना कर फिल्मकार उसमें साधना से अभिनय करवाना चाहता था, उस फ़िल्म की शुरुआत अब तक नहीं हो सकी थी।
फिल्मालय का करार पूरा हो जाने, और जॉय मुखर्जी के साथ उसकी केमिस्ट्री आगे न बढ़ने के चलते साधना का संबंध एस मुखर्जी की फ़िल्म कंपनी से अब औपचारिक ही रह गया था, और वहां उसके लिए कोई विशेष स्कोप नहीं बचा था।
जबकि आशा पारेख अब भी मुखर्जी साहब की पसंदीदा अभिनेत्री बनी हुई थी। जॉय मुखर्जी के साथ आशा पारेख की फ़िल्म "लव इन टोक्यो" भी काफी सफल रही।
साधना की बड़ी व्यावसायिक सफलता के बाद बिमल रॉय और ऋषिकेश मुखर्जी जैसे निर्देशक भी अब उदासीन होकर साधना के विषय में ये सोचने लगे थे कि अब पंछी उनके बूते का नहीं रहा। साधना बड़े और व्यावसायिक घरानों के साथ बेशुमार कमाई वाली एक से एक हिट फ़िल्में दे रही थी।
साधना ने लगभग सोलह साल की उम्र में फ़िल्म जगत में कदम रख दिया था। लगभग यही उम्र उनकी चचेरी बहन बबीता की भी हो चुकी थी। फ़िल्मों के प्रति अपने रुझान को भी बबीता दर्शा ही चुकी थी।
बबीता का फ़िल्मों में आना एक बड़ी घटना हो सकती थी। इस घटना का प्रभाव कमोवेश साधना पर भी पड़ने वाला था। जहां दोनों को एक दूसरी की उपस्थिति का लाभ मिल सकता था, वहीं एक दूसरी की उपस्थिति के तनाव भी मिलने की पूरी संभावना थी।
एक सबसे बड़ी मनोवैज्ञानिक बात तो ये थी कि यदि किसी एक ही घर से दो कलाकार फ़िल्मों में होते हैं तो दूसरे को इसके हानि लाभ दोनों होते हैं।
एक लाभ तो ये होता है कि पहले से बने - बनाए संपर्क होते हैं, जो परखे हुए भी होते हैं और विश्वसनीयता की दृष्टि से प्रामाणिक भी।
दूसरा लाभ ये होता है कि जो प्रस्ताव आते हैं वो एक के लिए उपयुक्त न होने पर दूसरे के लिए काम आ जाते हैं।
लेकिन हानि ये भी होती है कि पहले दिन से बाद में आने वाले पर एक दबाव रहता है अपने को श्रेष्ठ या समकक्ष सिद्ध करने का।
पर यहां तो ये तनाव इससे कहीं ज़्यादा जटिल थे।
साधना को फ़िल्म जगत में "मिस्ट्री गर्ल" अर्थात रहस्यमयी युवती का खिताब तत्कालीन मीडिया ने दे दिया। ज़्यादातर लोग यही समझते हैं कि उन्हें ये खिताब उनकी बेहतरीन फ़िल्म "वो कौन थी" में एक रहस्यमयी लड़की की भूमिका निभाने के कारण मिला। इसमें कोई शक नहीं कि वो कौन थी एक बेहद सफल फ़िल्म थी। इसके लिए साधना को फिल्मफेयर अवार्ड्स में बेस्ट एक्ट्रेस का नॉमिनेशन भी मिला और उनके रोल की ज़बरदस्त सराहना भी हुई। लेकिन उन्हें मिस्ट्री गर्ल कहने के पीछे एक इससे भी बड़ी मिस्ट्री थी।
फिल्मी दुनिया में ऐसा कहा जाता है कि यहां आगे बढ़ने के लिए किसी न किसी गॉड फादर का होना बहुत ज़रूरी है।
कोई प्रभावशाली व्यक्ति ऐसा ज़रूर हो जो हर समय, हर जगह आपके हितों का ख़्याल रखे।
पार्टियों में सार्वजनिक तौर पर लोगों को लगे कि अच्छा,आप इनके आदमी हैं! वो प्रोड्यूसरों से आपके नाम की सिफ़ारिश करे। आपकी फ़िल्मों का प्रमोशन करे, उन्हें पुरस्कार दिलाए और इस बात का खास ख्याल रखे कि आपका नाम किसी न किसी तरह सुर्खियों में बना रहे।
मीडिया में धाक जमाने में आप उसके, और वो आपके काम आए।
यही कारण है कि फिल्माकाश में चमकने का ख्वाहिशमंद हर कलाकार किसी न किसी मज़बूत सहारे को ढूंढता है।
लेकिन संयोग से साधना के साथ नियति ने कुछ ऐसा गुल खिलाया कि वहां गॉडफादर्स खुद उनकी राहों में आए पर सीधी सरल साधना ने उन्हें अनजाने में अपने से दूर कर दिया। न केवल दूर बल्कि कहीं कहीं तो नाराज़ कर दिया।
कुछ लोग ऐसे एकांगी दबंग होते हैं कि उन्हें या तो दोस्त बनाइए, या फ़िर वो दुश्मन बनेंगे। बीच का कोई सामान्य रिश्ता उनके यहां नहीं होता। उनके लिए इस बात का भी कुछ महत्व नहीं होता कि आपने उनका क्या बिगाड़ा है? उनके बिदकने लिए तो यही काफ़ी है कि आपने उनका काम बनाया क्यों नहीं! आपने उनकी अंधभक्ति क्यों नहीं की?
साधना अपने काम से काम रखने वाली प्रतिभाशाली और बेहद खूबसूरत अभिनेत्री थी। उसने ये नहीं सीखा था कि ज़िन्दगी में अपने फ़ायदे के लिए दूसरों को कैसे इस्तेमाल किया जाता है। उल्टे ऐसे कई लोग थे, जिन्होंने उसके सीधेपन और उदारता का बेजा फायदा उठाया।
यदि आप गहराई से पड़ताल करें तो देख पाएंगे कि साधना के लिए फ़िल्मों में जो भूमिकाएं लिखी गईं वो भी पटकथाकारों ने उसे पूरी तरह जान - समझ कर ही लिखीं, और उसका निजी जीवन उसके रोल्स में अक्सर झलका।
कुछ लोग तो यहां तक कहते हैं कि साधना अपने माता - पिता की इकलौती संतान थी और उसकी कोई और बहन नहीं थी, जिसका ज़िक्र कहीं - कहीं आ जाता है।
लेकिन उसके परिवार को निकट से जानने वाले कुछ ऐसे लोग भी हैं जो कहते हैं कि साधना की एक सगी बहन और भी थी जो देश के विभाजन के समय कराची पाकिस्तान से भारत आने के दौरान परिवार के साथ नहीं आ पाई। वो कैसे, किन परिस्थितियों में वहीं रह गई, ये ज्ञात नहीं था। क्या वो किसी हादसे का शिकार हुई, या वो अपने किसी आग्रह या संबंध के चलते वहीं रह गई, ये कोई नहीं जानता था।
ये एक दिलचस्प पराभौतिक तथ्य है कि साधना ने अपनी निजी ज़िन्दगी और फिल्मी भूमिकाओं में अपनी उस बहन को हमेशा अपनी याद, अपनी कल्पना या अपने विश्वास में महसूस किया।
एक बेहद खूबसूरत अभिनेत्री अपनी तमाम प्रतिभा और विलक्षणता के साथ अपनी भूमिकाओं में एक मिस्ट्री गर्ल बनी रही।
साधना ने कई फ़िल्मों में जुड़वां बहनों के रोल किए और हर फ़िल्म में ऐसा ही आभास दिया जैसे उसकी हमशक्ल दूसरी बहन से वो आश्चर्यजनक रूप से जुड़ाव रखती है।
वो कौन थी, असली- नक़ली, दूल्हा- दुल्हन आदि ऐसी ही फ़िल्में थीं।
हरि शिवदासानी की बेटी बबीता उनकी सगी नहीं चचेरी बहन थी। जिस तरह साधना को अपने चाचा और पिता से छिपा कर फ़िल्मों में कदम रखना पड़ा था, वैसी बबीता को कोई आशंका नहीं थी। क्योंकि बबीता के पिता खुद फ़िल्म जगत में थे, ये संभव था कि वो बबीता को कोई अच्छा ब्रेक दिलाने की कोशिश करें। दूसरे, राज कपूर से उनके अच्छे परिचय का लाभ भी बबीता को मिलने की पूरी संभावना थी।
साधना ने खुद अपने बल पर इतनी बड़ी सफ़लता अर्जित की थी कि उसके कारण उसकी बहन बबीता के स्वागत - सत्कार का सौहार्द्रपूर्ण वातावरण अपने आप बन जाने वाला था।
लेकिन फिर भी बात इतनी सहज नहीं थी जितनी बाहर से दिखाई देती थी।
यहां सबसे महत्व पूर्ण तथ्य ये था कि राजकपूर के बड़े सुपुत्र रणधीर कपूर से बबीता की मित्रता थी और वो दोनों मौक़े- बेमौके मिलते रहते थे।
अब फिल्मी दुनिया में रहने वाले दो परिवारों के जवान होते बच्चे आपस में दोस्त हों, इसमें तो कोई ऐतराज़ वाली बात कहीं से हो ही नहीं सकती।
लेकिन ये अंदाज़ न तो साधना को था, और न ही बबीता को, कि कपूर खानदान में रिवायत, रिवाज़ और फलसफे कुछ अलग ही थे। यहां सोच के पैमाने बेटे और बेटियों के लिए अलग - अलग रखे जाते थे।
साधना अपनी बहन से पहले भी बहुत कम मिलती रही थी और अब तो काम में इतनी व्यस्त थी कि मिलने -जुलने और रिश्ते निभाने के लिए वक़्त मिलना ही मुश्किल हो गया था।
दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल न होने का एक कारण ये भी था कि हरि शिवदासानी ने अंग्रेज़ महिला से शादी की थी। बबीता की मां बारबरा मुंबई में रहती ज़रूर रहीं पर उनका ज़्यादा मेलजोल किसी से कभी रहा नहीं। फिर उनकी ये रिजर्व रहने की प्रकृति कुछ असर तो बबीता पर भी डालती ही।
लिहाज़ा बबीता के प्लान्स का साधना को ज़्यादा कुछ पता नहीं रहता था।
साधना की फ़िल्मों के को- स्टार्स तो खुद ही ये शिकायत करते रहते थे कि साधना न तो फिल्मी पार्टियों के लिए समय निकालती है और न ही सोशल विजिट्स के लिए।
बस, सुबह साढ़े नौ बजे से दिनभर शूटिंग और शाम साढ़े छः बजे पैकअप के बाद सीधे घर आना, तथा मेकअप उतार कर अपने घर परिवार में रम जाना। यही रूटीन था।
लेकिन इस नियमितता और काम की लगन का भी कुछ फ़ायदा तो होना ही था।
साधना की उन्नीस सौ पैंसठ में दो फ़िल्में रिलीज़ हुईं- वक़्त और आरज़ू।
दोनों सुपर- डूपर हिट। फ़िल्में क्या थीं, मानो सिनेमा हॉल में चलने वाले त्यौहार ही थे।
वक़्त बी आर चोपड़ा की फ़िल्म थी जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था। इसमें राजकुमार, साधना, सुनील दत्त, शशि कपूर और शर्मिला टैगोर के साथ बलराज साहनी भी थे। ये फ़िल्म साल की सबसे बड़ी हिट साबित हुई। फ़िल्म काफ़ी लंबी भी थी जिसमें आठ गाने थे। गीत - संगीत भी ज़बरदस्त हिट। फ़िल्म में आठ में से चार गाने साधना के जिम्मे आए। जिनमें दो उसके सोलो गीत थे और दो सुनील दत्त के साथ। फ़िल्म ने रिकार्ड तोड़ बिज़नेस किया। साधना को एक बार फिर फ़िल्मफेयर अवॉर्ड्स में बेस्ट एक्ट्रेस का नॉमिनेशन मिला।
दूसरी फ़िल्म थी रामानंद सागर की आरज़ू। ये भी सफ़लता की नज़र से ब्लॉकबस्टर फ़िल्म साबित हुई। इसमें साधना, राजेन्द्र कुमार और फिरोज़ खान थे। ये कश्मीर की वादियों में फिल्माई गई बेहद खूबसूरत फ़िल्म थी जिसने देश भर में सफलता के झंडे गाढ़ दिए।
साधना का जादू देश भर में छा गया। उसने सिद्ध कर दिया कि वो सबसे ज़्यादा पैसा लेने वाली हीरोइन यूं ही नहीं है।
उसकी इस सफ़लता ने उसे हर मोर्चे पर समृद्ध बनाया। वो पार्टियों और समारोहों में तो वैसे भी ज़्यादा आना- जाना पसंद नहीं करती थी, किन्तु उसकी रुचि अपना प्रचार करने, अपनी पीआरशिप बढ़ाने और फ़िल्म वर्ल्ड की राजनीति में दखल देने में भी कभी नहीं रही थी।
शायद यही कारण रहा हो कि दूसरी बार बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट होने पर भी उसे ये पुरस्कार नहीं मिला।
अलबत्ता ये पुरस्कार दिया गया फ़िल्म "काजल" में मीना कुमारी को, जो उन दिनों अपने कैरियर के उतार पर थीं। मीना कुमारी के लिए ये रोल लिखा था गुलशन नंदा ने, जो नंदा के एक उपन्यास "माधवी" से लिया गया था।
साधना के प्रशंसकों और शुभचिंतकों को ये बिल्कुल समझ में नहीं आया कि "वक़्त" और "आरज़ू" की भूमिका और अभिनय के सामने गुलशन नंदा का ये पात्र किस तरह श्रेष्ठ या महान था। लेकिन साधना ने ऐसी बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया। वो तो उल्टे अपने को "अंडर एस्टीमेट" करने वाली लड़की थी। खुद के पांच को चार बताती थी। जबकि यहां इस उद्योग में अपने तीन को तेरह कहने वालों का बोलबाला था।
इन्हीं दिनों कभी तन्हाई के क्षणों में साधना को ये भी खयाल आने लगा कि वो नय्यर साहब से अब भी प्रेम करती है, और आर के नय्यर भी अपने दिल की कोमल भावनाएं बहुत पहले ही उसके सामने जता चुके हैं।
साधना को ये याद था कि छः साल पहले उसने नय्यर को प्रेम जताने पर ये कह दिया था कि उस पर अपने परिवार की आर्थिक मदद की ज़िम्मेदारी है, इसलिए वो अभी शादी नहीं कर सकती।
किन्तु आश्चर्य जनक सत्य ये था कि इन बीच के पांच सालों में जॉय मुखर्जी, शशि कपूर, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त,देवानंद, शम्मी कपूर, किशोर कुमार जैसे नायकों के साथ काम करते हुए कभी साधना का नाम किसी के साथ नहीं जुड़ा था, न ही किसी गॉसिपबाज़ कलम ने उसका रिश्ता कभी फ़िल्मों से इतर किसी शख्सियत से जोड़ा था और न ही कभी कहीं किसी के साथ उसकी डेटिंग की ख़बरें चटखारे लेकर सुनी पढ़ी गईं!
ये सब क्या था?
साधना के मन ने कहा, अब क्या समस्या है? अब आर्थिक स्थिति इतनी सुधर चुकी है कि मां - बाप चाहें तो पीढ़ियों तक बैठे- बैठे खा सकते हैं। फ़िर ये दिन हमेशा तो रहने वाले नहीं!
उम्र भी तेईस - चौबीस साल को छूने लगी है, ये कोई भला अकेले दिन गुजारने की उम्र है?
हमेशा ये दिल नहीं रहेगा, हमेशा ये दिन नहीं रहेंगे!
और कहावत है कि शिद्दत से कुछ चाहो तो कायनात पूरे जोशोखरोश से उसे आपको देने के लिए बेचैन हो उठती है। एक दिन नय्यर साहब का फोन आ गया कि आख़िर क्या इरादा है हुज़ूर का?
दिन जी उठे।
घरवालों को अपनी मंशा बताने की ठानी गई।
उधर इस साल की उसकी ज़बरदस्त सफलता से अभिभूत होकर उसके पास एक से बढ़ कर एक प्रस्ताव आने लगे थे।
उसको जेहन में रख कर पटकथाएं लिखी जाने लगीं।
हर बड़ा निर्माता अपनी अगली फ़िल्म में साधना को लेने का मंसूबा बांध कर अपने वित्तीय संसाधन आंकने लगा।
देश -विदेश के फिल्मी रिसाले साधना की कहानियों और ख़बरों से रंगे जाने लगे, टी वी और रेडियो पर साधना पर फिल्माए गए सुरीले गीत बजने लगे।
ऐ नर्गिसे मस्ताना, फूलों की रानी बहारों की मलिका, छलके तेरी आंखों से शराब और ज़्यादा, हम जब सिमट के आपकी बाहों में आ गए, कौन आया कि निगाहों में चमक जाग उठी, चेहरे पे खुशी छा जाती है, आंखों में सुरूर आ जाता है... गली- गली, घर- घर गूंजने लगे।
अपनी सफल फ़िल्मों में साधना ने हिंदी और उर्दू के मेल से उपजी एक ऐसी तहज़ीब का माहौल बनाया जिसे अपने बोलने- चालने, पहनने- ओढ़ने में नई पीढ़ी दिल से अपनाने लगी। एक ऐसा फ़लसफ़ा, जिसमें नफ़रत के लिए कोई गुंजाइश न हो। जहां खलनायकी की कोई जगह न हो।
मानवीय भावनाएं प्रेम, छल, कपट, ईर्ष्या, करुणा, क्रोध, सहानुभूति, सुंदरता, वासना...सब हों लेकिन हिंसा,नफरत, लड़ाई - झगड़ा आदि फ़िल्म के पर्दे पर जगह न पाएं।
आख़िर लोग यहां दिल बहलाने के लिए आते हैं, अपनी कमाई से टिकट खरीद कर आते हैं, आपको क्या हक है कि आप उन्हें जीवन विरोधी कथानक परोसें और उनके सपनों को नेस्तनाबूद करके अपनी तिज़ोरी भरें।
वक़्त और आरज़ू में ऐसी नकारात्मकता का एक भी दृश्य न होने पर भी बॉक्स ऑफिस पर दोनों फ़िल्मों का धमाल काबिले गौर था।
एक पत्रिका में दिए गए अपने इंटरव्यू में साधना ने एक बार कहा भी कि एक एक्टर और एक अच्छे एक्टर में बहुत मामूली सा अंतर ही होता है।
ये अंतर केवल इतना सा है कि अच्छा एक्टर अपने जेहन और अभिव्यक्ति में कुछ "एक्स्ट्रा" रखता है, जिसे वो अपने लिए लिखे हुए निर्देशित सीन में अनजाने में ही जोड़ देता है। एक ही लेखक के लिखे हुए एक से दृश्य को दो अलग अलग कलाकार अलग अलग ढंग से निभा ले जाते हैं। कई नामचीन सितारे तो अपने किरदार के संवाद तक बदलवा लेते हैं। निर्देशक इसके लिए सहर्ष तैयार भी हो जाता है क्योंकि उसे ये भरोसा होता है कि अच्छा कलाकार कोई न कोई मैजिक ही जोड़ेगा अपने किरदार में।
और दर्शक कह उठते हैं कि ये काम तो इसी के बस का था, "ही ओर शी डिड द रोल ही/शी वाज़ बॉर्न टू प्ले!"
कहते हैं कि मां- बाप हमेशा औलाद का भला ही सोचते हैं।
जिन माता- पिता ने छः साल पहले साधना को अपने प्रेमी आर के नय्यर से विवाह करने की अनुमति ये कह कर नहीं दी थी कि प्यार से भी ज़रूरी कई काम हैं, प्यार सब कुछ नहीं ज़िन्दगी के लिए... उन्होंने ही अब कह दिया "मियां बीवी राज़ी तो क्या करेगा काज़ी?"
और उनके द्वार पर शहनाइयां बजने लगीं।
सफ़लता के जिस सुनहरे फर्श पर साधना चल रही थी, सहसा उसे लगा... आंच देने लगा कदमों के तले बर्फ़ का फर्श, आज जाना कि मोहब्बत में है गर्मी कितनी, संगेमरमर की तरह सख़्त बदन में मेरे, आ गई है तेरे छू लेने से नर्मी कितनी...!
ज़ोर - शोर से शादी की तैयारियां शुरू हो गईं।
उस दौर की सबसे सफल हीरोइन और एक फ़िल्म निर्माता का प्रेम विवाह था। फ़िल्म जगत में चर्चा का बड़ा विषय बना।
हालांकि न तो होने वाले पति की ओर से ऐसी कोई बंदिश थी कि दुल्हन शादी के बाद फ़िल्में नहीं करेगी, और न ही होने वाली दुल्हन, साधना ने ऐसा कोई संकेत दिया था कि अब वो काम नहीं करना चाहती, फ़िर भी आख़िर शादी की चहल- पहल और हनीमून के लिए वक़्त तो निकालना ही था।
साधना को फ़िल्म "दो बदन" इसीलिए छोड़नी पड़ी, जिसे बाद में मनोज कुमार के साथ आशा पारेख ने किया। फ़िल्म काफ़ी सफल रही।
उन्नीस सौ छियासठ साल की होली के दिन मुंबई में भारतीय पद्धति से साधना का विवाह संस्कार संपन्न हो गया।
पत्र- पत्रिकाओं ने इसे "स्क्रीन लैंड के ताज़ा इतिहास की सबसे बड़ी घटना का सबसे भव्य समारोह" निरूपित किया।
शादी के अगले ही दिन टर्फ क्लब का रोशनी से नहाया हुआ लॉन फ़िल्म जगत के तमाम सितारों से जगमगा उठा, जब शादी का आलीशान रिसेप्शन दिया गया।
शादी की मेहंदी और हल्दी जैसी रस्मों को निभाने में दुल्हन साधना का साथ दिया अभिनेत्री नरगिस, निम्मी, नाज़, आशा पारेख, सायरा बानो, श्यामा,श्रीमती कृष्णा राजकपूर ने, और फेरे, पायल आदि रस्मों में इन सब के साथ - साथ बी आर चोपड़ा, महेंद्र कपूर, मुकरी, सुबि राज, नन्हे बालक संजय दत्त ने भी भागीदारी निभाई।
साधना की शादी के फोटोग्राफ्स में उसके किसी हीरो का न होना लोगों को अखरता रहा और दर्शक मानो मन ही मन इन नायकों से पूछते रहे - किस बात पे नाराज़ हो, किस बात का है गम???
साधना शादी के बाद अब रहने के लिए अपने माता - पिता के घर से अपने पति नय्यर साहब के घर चली आईं।
एक और विचित्र तथा मज़ेदार बात उनके विवाह पर फ़िल्म जगत के गलियारों में गूंजी। कहते हैं कि साधना की शादी की रात पुणे के एक प्रतिष्ठित आर्मी इंस्टीट्यूट के युवा लड़कों ने शराब पीते हुए नशे में अपने को डुबो कर मनाई।
वैसे इसके पीछे कारण ये बताया जाता है कि साधना ने सन उन्नीस सौ पैंसठ में नई दिल्ली में एक ऐसे कार्यक्रम "ए डेट विथ स्टार्स" में हिस्सा लिया था जो राष्ट्रीय रक्षा फंड के लिए धन जमा करने के मकसद से आयोजित किया गया था। इसमें फ़िल्म कलाकार डेविड, जयराज, और मदन मोहन ने उनका साथ दिया था। मदन मोहन ने साधना की कई फ़िल्मों को सुरीले संगीत से सजाया था।
तो हमारे नव सैनिक साधना जी के इस उपकार को भूले नहीं थे, और विवाह करके उनके पराए हो जाने का दुख उन युवाओं ने भी मनाया था।
इतना ही नहीं, गत वर्ष साधना ने सत्तर हज़ार रुपए और अपने ढेर सारे गहनों का उपहार खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री लाल बहादुर शास्त्री से मिल कर राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए उन्हें दिया था।
शायद उनकी उदारता और सेना के प्रति उनके सम्मान की भावना को देख कर ही एक फ़िल्म के लिए किसी शायर ने ऐसे गीत लिखे होंगे -" सिपाही देते हैं आवाज़ माताओं को बहनों को... हमें हथियार ले दो बेच डालो अपने गहनों को।"
साधना अपना घर संसार छोड़ कर देश के विभाजन के समय कराची से हिंदुस्तान आई थीं इसलिए शायद मन में कहीं न कहीं ये कसक सी थी कि कभी कोई युद्ध भारत और पाकिस्तान को फ़िर से एक करके उन्हें अपने बचपन से जोड़ दे।
इस साल फिल्मफेयर अवार्ड्स समारोह में बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नॉमिनेट होने पर भी उन्हें ये पुरस्कार मिला तो नहीं था, किन्तु फ़िल्म "दोस्ती" के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार की ट्रॉफ़ी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को उनके हाथ से ही दिलवाई गई थी। उन्होंने इस अवसर पर अपनी फ़िल्म "अनीता" का एक गीत भी गाया।
उनकी ब्लॉकबस्टर फ़िल्म "आरज़ू" का चैरिटी प्रीमियर भी इस साल निर्माता - निर्देशक रामानंद सागर ने आयोजित किया जिसकी पूरी आय नेवल डॉकयार्ड टी बी फंड को दान दी गई। साधना इस समारोह में भी खुद मौजूद रहीं।
उन्हें सुपर हिट फ़िल्म "वक़्त" की सिल्वर जुबली ट्रॉफ़ी पृथ्वी राज कपूर ने अपने हाथों से प्रदान की।
वे अपनी फ़िल्म "मेरे मेहबूब" के तंजानिया में हुए प्रीमियर पर भी स्वयं उपस्थित हुई थीं।
जो लोग ये सोचते थे कि साधना सोशल और मनोरंजक गेदरिंग्स में नहीं पहुंचती हैं, वे शायद इतना नहीं जानते हों कि इस बुद्धिमान महिला के लिए सोशल गेदरिंग्स का क्या मतलब था।
बेहद सफ़ल व्यावसायिक फ़िल्मों की ये ग्लैमरस नायिका नाचगाने और शराब की चलताऊ फिल्मी पार्टियों में शिरकत करने से ज़रूर बचती थी।
दिलीप कुमार के साथ साधना ने कभी स्क्रीन शेयर तो नहीं किया था लेकिन उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध के समय सेना के रक्षा फंड हेतु धन जमा करने के अभियान में उन्होंने दिलीप कुमार, वहीदा रहमान, मीना कुमारी और मोहम्मद रफ़ी के साथ बढ़- चढ़ कर हिस्सा लिया था।
उनकी शादी वाले इस वर्ष में ही एक सुखद घटना और घटी कि वर्षों पहले मुंशी प्रेमचंद की कहानी "गबन" पर जो फ़िल्म बनते बनते रह गई थी, उसे ऋषिकेश मुखर्जी ने सुनील दत्त और साधना जैसे व्यस्त और सफल सितारों को लेकर पूरा किया।
हिंदी फ़िल्मों की उस वक़्त की सबसे मंहगी हीरोइन साधना ने मुंशी प्रेमचंद के नाम पर "गबन" फ़िल्म के लिए अपना पारिश्रमिक निर्माता की मनमर्ज़ी पर छोड़ कर न्यूनतम कर दिया जबकि इसी समय वो समय न होने के चलते "दो बदन" जैसी बड़े बजट की व्यावसायिक फ़िल्म छोड़ चुकी थीं।
गबन के साथ ही उनकी एक बेहद सफल और प्रशंसित फ़िल्म "मेरा साया" भी इसी साल रिलीज़ हुई। इस फ़िल्म में उनकी दोहरी भूमिका थी। फ़िल्म का संगीत भी बहुत खूबसूरत था।
राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी इस फ़िल्म को दर्शकों की ज़बरदस्त सराहना मिली। इसमें भी उनके साथ सुनील दत्त थे, जिन्होंने गबन में नायक की अविस्मरणीय भूमिका अदा की थी।
इस फ़िल्म का एक गीत "झुमका गिरा रे बरेली के बाज़ार में" तो इतना लोकप्रिय हुआ कि आज तक लोग बरेली को उसी तरह झुमकों के निर्माण का शहर समझते हैं जैसे फ़िरोज़ाबाद को चूड़ी के निर्माण का।
पिछले कुछ सालों ने बीते दशक की कालजयी अभिनेत्रियों की चाल को कुछ मंथर कर दिया था और वो एक एक करके रजत पट पर धूमिल या ओझल होने लगी थीं। ये युवाओं का नया दौर था और इस दौर को साधना, आशा पारेख, सायरा बानो, शर्मिला टैगोर जैसी हीरोइनें अपने नाम कर रही थीं।
इसी दौर का एक दिलचस्प किस्सा है, दो प्रोड्यूसर्स शाम के समय किसी मशहूर मदिरालय में बैठे जाम भी टकरा रहे थे और अपने आने वाले प्रोजेक्ट्स भी डिस्कस कर रहे थे। एक निर्माता ने दूसरे से कहा- तुम्हारी क्या राय है, अपने अगले ड्रीम प्रोजेक्ट के लिए किस हीरोइन को एप्रोच करना चाहिए?
सामने बैठे अनुभवी और सफल प्रोड्यूसर ने जवाब दिया- अपनी स्क्रिप्ट देखो, यदि केवल खूबसूरत सजावटी गुड़िया चाहिए तो सायरा बानो को ले लो, यदि तुम्हारी हीरोइन ख़ूबसूरती के साथ - साथ नाचने- थिरकने वाली भी है तो आशा पारेख से बात करो, और अगर खूबसूरती व डांस के साथ - साथ कोई सोचने- समझने वाली भूमिका है तो साधना का खर्च उठाओ!
लोग यूं ही नहीं कहते कि होश की बात नशे में ही की जाती है।
अब तक साधना की छवि एक आभिजात्य में पली, शहरी पढ़ी - लिखी लड़की की बन चुकी थी, जो अपने फ़ैसले खुद लेती है, अपने साथियों को सलाह- मशवरा भी देती है और अपना सोचा हुआ कर गुजरने का माद्दा भी रखती है।
साठ के दशक के युवा लड़कियों के तमाम पहनने- ओढ़ने के फैशन साधना के बदन से गुज़र कर ही अवाम तक पहुंचे।
कभी कभी तो किसी विवशता ने उनके हाथों किसी नए फैशन का चमत्कार गढ़ दिया।
साधना के एक पैर की एक अंगुली दूसरी अंगुली पर प्राकृतिक रूप से चढ़ी हुई थी। पैर में चप्पल पहनकर चलने पर ये अजीब सी दिखाई देती थी। उनका लंबा कद होने के कारण फ्लैट चप्पल पहनकर चलना ज़रूरी हो जाता था क्योंकि कुछ मामलों में सह कलाकार की हाइट का ख्याल भी रखना जरूरी होता था।
अपनी इस उलझन को सुलझाने के लिए उन्होंने एक बार सुन्दर कलात्मक जूतियां, जिन्हें मोजड़ी कहा जाता है, पहनी। उनके नज़ाकत और नफासत भरे व्यक्तित्व पर ये चमकती सुनहरी जूतियां ऐसी फ़बीं कि ये भी दौर का फैशन बन गईं।
चूड़ीदार पायजामा और कुर्ता पहनने वाली लड़कियां ही नहीं, लड़के भी जूतियां पहने दिखाई देने लगे।
पठान सूट, पंजाबी सलवार सूट आदि के साथ यही पहनी जाने लगीं।
इस तरह ग्रामीण परिधान का हिस्सा माने जाने वाली जूतियां शहरी कलात्मक फैशन से जुड़ गईं।
एक और बात में साधना अपने दौर की अन्य अभिनेत्रियों तथा अन्य फिल्मी लोगों से अलग थीं। वे अपने प्रचार या केवल मिलने- जुलने को पसंद नहीं करती थीं। उनकी अपनी राय ये थी कि फिल्म कलाकारों को लोगों के बीच बहुत ज़्यादा आने- जाने या घुलने- मिलने से बचना चाहिए। शायद यही कारण हो कि फ़िल्म के पर्दे पर उन्हें देखते समय दर्शक और भी अधिक उत्सुकता या चाव से देखते हों।
फ़िल्म "अनीता" ने साधना की "मिस्ट्री गर्ल" की छवि को और भी पुष्ट किया। हालांकि फ़िल्म कोई बड़ी हिट साबित नहीं हुई पर इसमें उनकी चार भूमिकाओं ने एक अलग तरह का आकर्षण पैदा किया। वास्तव में ये चार रोल नहीं थे बल्कि एक ही व्यक्तित्व की चार अलग- अलग परिस्थितियां थीं लेकिन साधना जैसी वर्सेटाइल एक्ट्रेस के लिए इसमें अपनी प्रतिभा दर्शाने की एक विस्तृत रेंज निकली और उनकी भूमिका को सराहा गया।
इसमें साधना के साथ मनोज कुमार थे। इसमें उनकी खूबसूरत आंखों को लेकर बेहद आकर्षक गीत राजा मेहंदी अली खान ने लिखे।
साधना की शादी का हनीमून पीरियड कितना रहा, इस बात का जवाब खुद साधना ने एक महिला पत्रकार को एक बार अपने आप दिया। साधना का कहना था कि ये एक बार शुरू होने के बाद कभी खत्म नहीं हुआ।
लेकिन दुनिया की कोई दास्तान चढ़ाव उतार के बिना कभी पूरी नहीं हुई।
साधना की कहानी की लहराती - महकती बगिया में भी पछुआ हवाएं चलती देखी गईं।
एक वाकया ऐसा था जिसकी कड़वाहट इस उद्दाम वेग से बहती नदी के पानी को कसैला कर रही थी।
ये बात कुछ पुरानी ज़रूर थी, पर अब तक राख में छिपी चिंगारी की तरह किसी को दिखाई नहीं दी थी, खुद साधना को भी नहीं।
हां, इसकी एक हल्की सी झलक बहुत सोचने पर साधना को कुछ समय पूर्व घटी एक घटना में दिखाई दी थी। पर इसे दिल से न लगा कर साधना ने अपने जेहन से निकाल फेंका था।
इसका कोई असर न उन्होंने अपने जीवन पर आने दिया और न ही काम पर।
कभी- कभी आप सीधे- सीधे अपने रास्ते पर चल रहे होते हैं और बादल छा जाते हैं। वो न केवल छा जाते हैं, बल्कि बेमौसम बरसने भी लग जाते हैं।
इसमें आपकी कोई गलती नहीं होती, लेकिन आपकी राह में, आपके इरादे में बाधा आ जाती है और आपके कदम अनायास रुक जाते हैं या फ़िर मुड़ जाते हैं।
सन उन्नीस सौ चौंसठ में साधना की एक फ़िल्म आई थी, दूल्हा दुल्हन। इसमें साधना का डबल रोल था। फ़िल्म के हीरो थे राजकपूर।
मज़े की बात ये थी कि साधना सबसे पहले शशि कपूर के साथ फ़िल्म "प्रेमपत्र" में काम कर चुकी थीं, जो कि राजकपूर के सबसे छोटे भाई थे। साधना ने राजकपूर के दूसरे भाई शम्मी कपूर के साथ भी हिट फ़िल्म "राजकुमार" कर ली थी। और अब सबसे बाद में वो राजकपूर के साथ दूल्हा दुल्हन फ़िल्म कर रही थीं।
इसकी शूटिंग ज़ारी थी।
शूटिंग के बीच लंच का समय था।
साधना प्रायः अपना खाना सेट पर अपनी महिला सहकर्मियों के साथ ही खाती थीं। वो चाहे कोई सहायक अभिनेत्री हो, कोई तकनीकी स्टाफ हो या मेकअप करने वाला स्टाफ ही क्यों न हो।
जबकि दूसरी हीरोइनें प्रायः अपना स्टेटस मेंटेन करने की धुन में अक्सर हीरो, डायरेक्टर या अन्य बड़े स्टारों के साथ ही बैठना पसंद करती थीं।
उस दिन गाड़ी से राजकपूर के टिफिन का बैग लाकर रखने वाले स्पॉटब्वॉय ने जैसे ही उनके लिए पीने का पानी लाकर रखा, वे उससे बोल पड़े- मैडम कहां हैं?
लड़का बोला - उधर, खाना खा रही हैं।
राज कपूर को ज़रा आश्चर्य हुआ।
राजकपूर ने कुछ सोचते हुए प्लेट से एक टुकड़ा उठाया, लेकिन फ़िर बिना खाए उसे वापस रख दिया।
फ़िर वो स्पॉटबॉय से बोले- मैडम से कहो, मैं बुला रहा हूं।
लड़का झटपट गया और पलक झपकते ही वापस आ गया। उसके पीछे पीछे साधना भी चली आ रही थीं। उन्होंने खाना खाकर अभी हाथ भी साफ नहीं किए थे।
राजकपूर कुछ मुस्कराते हुए बोले- क्या कुछ स्पेशल आया था घर से,जो हमसे नहीं बांटा जा सकता था?
साधना झेंप कर रह गईं। केवल धीरे से इतना कह सकीं- उन लोगों ने खाना वहां परोस दिया तो खाने बैठ गई।
राजकपूर कुछ गंभीर हो कर खाने लगे। साधना वहीं उनके पास बैठी रहीं।
अचानक राजकपूर ने खाना छोड़ दिया और हाथ रोक कर बोले- तुमसे कुछ बात करने की सोच रहा था।
साधना को थोड़ी हैरानी हुई। केवल इतना बोल पाईं- जी, कहिए!
- हरि की बेटी और डब्बू के बारे में... राजकपूर ने बिना किसी भूमिका के तपाक से कहा। ( उनका मतलब अभिनेता हरि शिवदासानी की बेटी बबीता और खुद उनके सुपुत्र रणधीर कपूर के बारे में था। हरि शिवदासानी साधना के चाचा थे)
साधना कुछ संजीदा होकर और करीब खिसक आईं। पर बोलीं कुछ नहीं।
राजकपूर ने कहना शुरू किया- सुना है दोनों में अच्छी दोस्ती है, पार्टियों में साथ में घूमते हैं।
साधना चुप रहीं।
- क्या कर रही है ये लड़की बबीता?
साधना खामोश रहीं।
राजकपूर कुछ तल्खी से बोले- मैंने सुना है कि कॉलेज - स्कूल भी नहीं जाती, केवल मॉडलिंग और फ़िल्मों में काम पाने का शौक़ है।
अब साधना ने धीरे से मुंह खोला, बोलीं - कुछ ग़लत है क्या?
- क्या? राजकपूर ने हैरानी से पूछा।
- फ़िल्मों में काम पाने की कोशिश करना। साधना बोलीं।
राजकपूर ने सिर झुका लिया, पर कुछ बोले नहीं।
कुछ देर कमरे में सन्नाटा पसरा रहा। राजकपूर ने खाने की प्लेट बिना ख़त्म किए ही परे सरका दी।
प्लेट उठाने के लिए स्पॉटबॉय भीतर आने लगा तो साधना ने इशारे से उसे रोक दिया और बाहर जाने का इशारा किया।
लड़का चला तो गया पर बाहर की दीवार पर कान लगा कर सांस रोके खड़ा रहा।
अब थोड़ी गहरी पर मंद आवाज़ में बोल रहे थे राजकपूर, कहा - नहीं, गलत नहीं है फ़िल्मों में काम पाने की कोशिश करना, लेकिन दो सपने एक साथ देखे जाएं तो दोनों ही पूरे नहीं होते!
अगर यहां साधना की जगह कोई और हीरोइन होती तो एक बार राजकपूर से इस बात का मतलब ज़रूर पूछती। पर सामने साधना थीं। सब समझ गईं।
राजकपूर बोले- अपनी बहन को समझाओ कि कपूर परिवार की लड़कियां, या इस परिवार में आने की ख्वाहिशमंद लड़कियां फ़िल्मों का रुख नहीं करतीं।
अब साधना तिलमिला गईं। चुप नहीं रह सकीं, बोलीं- क्यों? फ़िल्मों में आने वाली सभी लड़कियां आवारा और बदचलन होती हैं क्या? जो लड़कियां फ़िल्मों में काम नहीं करतीं क्या वो सभी सती - सावित्री होती हैं?
- तुमसे बात करना बेकार है। तुम खुद नहीं समझ रही हो, तो उसे क्या समझाओगी!
- लेकिन समझने की ज़रूरत तो आपको है। आपको पता है, मैं नरगिसजी को आंटी कहती हूं पर वो मुझे बिल्कुल अपनी सहेली की तरह मानती हैं। उन्होंने अपनी हर बात मुझसे शेयर की है। क्या आप भी वही करना चाहते हैं जो आपके साथ हुआ? क्या आपको पसंद आया था वो सब!
अब राजकपूर बैठे न रह सके। वो गुस्से से तमतमाये हुए उठे और दनदनाते हुए बाहर निकल गए।
साधना उनके पीछे - पीछे प्लेट उठा कर गईं- खाना तो खाइए...
पर वो अपनी कार में जा बैठे।
पूरी यूनिट देखती रह गई। शूटिंग पैकअप हो गई।
लेकिन ये घटना कुछ समय बाद आई - गई हो गई। एक दिन एक फ़िल्म मैगज़ीन में ये खबर ज़रूर छपी कि फ़िल्म "दूल्हा- दुल्हन" के सेट से नाराज़ होकर शूटिंग बीच में छोड़कर लौटे राजकपूर।
पर इस बात की असलियत या तो साधना जानती थीं या फ़िर वो स्पॉटबॉय लड़का जो राजकपूर को लंच में खाना खिला रहा था।
इसके बाद उस फ़िल्म के सेट पर साधना ने हमेशा खाना राजकपूर के साथ ही बैठ कर खाया, पर इस विषय को लेकर दोनों में दोबारा कोई बात नहीं हुई।
असल में ये दुनिया जानती थी कि पृथ्वीराज कपूर के परिवार में कभी कोई लड़की फ़िल्मों में काम नहीं करती थी। लेकिन उस परिवार के लड़के सभी एक के बाद एक फ़िल्मों में ही आ रहे थे।
ज़ाहिर है कि उनकी दोस्तियां फ़िल्म हीरोइनों से खूब पनप रही थीं। पृथ्वीराज कपूर ने ये परिपाटी ही बना दी थी कि उनके परिवार की न तो बेटियां फ़िल्मों में काम करेंगी, और न बहुएं।
जद्दन बाई, शोभना समर्थ आदि से पृथ्वीराज कपूर के रिश्ते कलाकारों के आपसी रिश्तों तक ही सीमित रहे किन्तु राजकपूर और नरगिस ने कई सफल फ़िल्मों में साथ - साथ काम करने के बाद अपनी ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री को ऑफ स्क्रीन केमिस्ट्री में भी बदला और वो उद्दाम प्रेमी बन कर चर्चित हो गए।
किन्तु भारी जद्दोजहद के बाद भी राजकपूर को नरगिस को अपनी जीवन संगिनी बना पाने की अनुमति नहीं मिल सकी। उन्हें अलग होना ही पड़ा, और राजकपूर की शादी कृष्णा से हुई जो सब फिल्मी कलाकारों की संरक्षक और आदरणीय बन कर भी खुद फ़िल्मों से दूर ही रहीं।
साधना अकेले में कभी- कभी नियति के इस खेल के बारे में सोचती ज़रूर थीं और फ़िर खुद ही अपने खयालों और सपनों में खो भी जाती थीं।
सबको एक अचंभा ज़रूर होता था, चाहे वो फ़िल्म दर्शक हो, या फ़िल्म समीक्षक, कि अपनी इस सफलता के दौर में मोती लाल, अशोक कुमार, राजकपूर, देवानंद, सुनील दत्त, राजेन्द्र कुमार, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर,शशि कपूर,राज कुमार जैसे लगभग उस दौर के सभी सफल सितारों के साथ काम कर लेने के बावजूद साधना ने कभी दिलीप कुमार के साथ काम क्यों नहीं किया? जबकि दिलीप कुमार तो पिछले एक दशक से परदे पर थे और अभी भी बेहद सक्रिय रह कर धड़ाधड़ फ़िल्में कर रहे थे।
लेकिन लोगों को पर्दे के पीछे की कहानियां कहां पता चल पाती हैं। उन्हें तो वही पता चलता है जो रजतपट पर आता है।
दरअसल,बहुत पुरानी बात थी। स्कूल में पढ़ रही किशोरी साधना जब राजकपूर की फ़िल्म श्री चार सौ बीस में एक समूह गीत के लिए शूटिंग में पहुंच गई थी तब उसे वहीं पता चला था कि दिलीप कुमार और वैजयंती माला को लेकर एक फ़िल्म "गंगा - जमना" बन रही है जिसके लिए कलाकारों के चयन का काम चल रहा है। इस फ़िल्म में वैजयंतीमाला के साथ सहायक अभिनेत्री की एक भूमिका और भी थी जिसे बाद में सह कलाकार अजरा ने अभिनीत किया था।
साधना ने इस रोल के लिए आवेदन करते हुए निर्माता को अपना फोटो भेजा था, और एक दिन उनसे मिलने भी पहुंच गई थी। संयोग से दिलीप कुमार उस समय निर्माता के पास ही थे और फ़ोटो तथा सामने खड़ी गोरी लंबी लड़की को देख कर कुछ कुछ होता है की भावना के शिकार हो गए थे।
बाद में वैजयंतीमाला को फोटो दिखाया गया तो उन्होंने साफ़ ही मना कर दिया। कहा - बाबा, कैमरा इसे देखेगा कि मुझे! अपनी हीरोइन का कुछ तो रुतबा रखो।
साधना बैरंग लौट आईं।
लेकिन वक़्त के खेल देखिए, कि जब साधना को लव इन शिमला में हीरोइन बना कर लॉन्च किया गया तो उनकी सहायक अभिनेत्री की भूमिका में अजरा को लिया गया।
साधना ने मन ही मन रब का शुक्रिया अदा किया कि अगर उस समय उन्होंने सपोर्टिंग एक्ट्रेस का वो रोल ले लिया होता तो शायद आज उन्हें ये मौक़ा मिलता या नहीं राम जाने।
और साधना के फ़िल्म मेरे मेहबूब से बुलंदियां छू लेने के बाद दिलीप कुमार के निर्माता - निर्देशक ने जब उनके साथ फ़िल्म "लीडर" में हीरोइन के रूप में साधना को लेने की पेशकश की तो राजकुमार, वक़्त, आरज़ू, वो कौन थी की शूटिंग में व्यस्त साधना के पास दिलीप कुमार की तारीखों से मैच कर पाने वाली तारीखें उपलब्ध नहीं थीं, और लीडर में वैजयंती माला को ही लिया गया।
यहां तक कि दिलीप कुमार को लेकर फ़िल्म "पुरस्कार" बनाने की कोशिश करने वाले डायरेक्टर बिमल रॉय भी साधना को साइन कर लेने के बावजूद फ़िल्म पूरी नहीं कर सके।
उस दिन "दूल्हा दुल्हन" के सेट पर साधना की राजकपूर से जो बात हुई थी, उसने कई राज खोल दिए।
इसका मतलब ये था कि रणधीर कपूर और बबीता की दोस्ती की बात काफ़ी बढ़ गई थी। इस बात का राजकपूर तक पहुंच जाना ये बताता था कि रणधीर कपूर बबीता को लेकर गंभीर है।
लेकिन साधना के लिए ये समझना मुश्किल था कि यदि बात इस हद तक बढ़ गई है, और राजकपूर बबीता को स्वीकार करने के लिए मन से तैयार नहीं हैं तो वो सीधे बबीता के पिता से भी तो ये बात कर सकते थे।
बबीता के पिता हरि शिवदासानी तो राजकपूर के साथ काफ़ी घुले मिले थे, दोनों ने साथ में काम भी किया था।
शायद राजकपूर साधना से इस बात का ज़िक्र छेड़ कर इस सच्चाई का पता लगाना चाहते हों कि बबीता के मन में क्या है। बच्चे अपने मां - बाप से इतना खुल कर नहीं बात कर पाते जितना हमउम्र मित्रों या भाई बहनों में।
ये भी तो हो सकता था कि फ़िल्मों में काम पाने के लिए कपूर परिवार से मेल - जोल बढ़ाने वाली और कई लड़कियों की तरह बबीता ने भी रणधीर कपूर से मित्रता की हो।
जो भी हो, ये तय था कि राजकपूर अपने सिद्धांत पर अडिग रहने वाले थे और वो किसी भी सूरत में बबीता के दोनों सपने, रणधीर कपूर से शादी करना, और फ़िल्मों में काम करना,एक साथ पूरे होने देने के लिए तैयार नहीं होने वाले थे।
इसलिए साधना इस टेंशन को अपने दिल से निकाल दिया था। उनका सोचना था कि वक़्त के ही हाथों में होते हैं ऐसे फ़ैसले।
सन उन्नीस सौ छियासठ में साधना की दो फ़िल्में और भी रिलीज़ हुई। गबन के बाद ही उनकी फ़िल्म "बदतमीज" आई जिसमें उनके साथ हीरो शम्मी कपूर थे।
शम्मी कपूर का स्वभाव अपने घर में सबसे अलग था। वे मस्त- मौला तबीयत के खिलंदड़े इंसान थे और उनके साथ काम करते हुए किसी भी हीरोइन को कभी कोई तकलीफ़ नहीं होती थी। उनका सोच जटिल या उलझा हुआ नहीं था।
लेकिन इस फ़िल्म की अच्छाई बुराई भी सब शम्मी कपूर को ही मिली। वैसे भी जंगली, जानवर और बदतमीज जैसे शीर्षकों को वो ही खुशी से झेलते थे।
इस फ़िल्म की रिलीज़ के साथ ही दुर्भाग्य का एक पन्ना साधना के जीवन में खुल गया, जिसने उनके शुभचिंतकों को ज़बरदस्त आघात पहुंचाया।
साधना की तबीयत खराब हुई और जांच के बाद पाया गया कि उन्हें थायराइड रोग ने घेर लिया है। एकाएक पता चले इस रोग ने कई लोगों की नींद उड़ा दी।
साधना की उम्र अभी कुल पच्चीस वर्ष थी और वो अपने कैरियर के शिखर पर थीं।
लेकिन रोग ने धीरे धीरे अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। साधना की ढेर सारी फ़िल्में बीच में ही रुक गईं और उन्हें इलाज के लिए विदेश जाना पड़ा।
उनका इलाज अमेरिका के बॉस्टन शहर के एक प्रतिष्ठित केंद्र में चला।
फ़िल्म जगत से ये दूरी साधना को ही नहीं,बल्कि कई नामी गिरामी प्रोड्यूसर्स को भी बेचैन कर गई।
देवानंद के साथ राज खोसला के निर्देशन में बनने वाली फ़िल्म "साजन की गलियां", मनोज कुमार के साथ "दामन", गुरुदत्त के साथ "पिकनिक", जॉय मुखर्जी के साथ "साहिरा", और किशोर कुमार के साथ "लव स्पॉट" जैसी उनकी फिल्में अधर झूल में रह गईं और उन्हें इलाज के लिए जाना पड़ा।
कहते हैं कि जब मुसीबत आती है तो वो दिशा नहीं देखती, कहीं से भी आ जाती है। और सब कुछ ऐसे बदलने लग जाता है मानो अपने किरदार से कोई भारी भूल हो गई हो।
अगर किसी को कोई चाहने लग जाए, और उसका अपना दिल उसे न चाहे तो ये कोई अपराध तो नहीं, लेकिन चाहत की ये बातें ज़िन्दगी में याद ज़रूर आती रहती हैं। साधना की पहली फ़िल्म लव इन शिमला जॉय मुखर्जी के साथ आई थी। कहते हैं इस फ़िल्म के साथ आर के नय्यर तो साधना के प्रेमपाश में बंध ही गए थे, फ़िल्म के हीरो जॉय मुखर्जी भी मन ही मन उन्हें चाहने लगे थे।
कितना अंतर था साधना और उनकी बहन बबीता की चाहत में। जहां बबीता के प्रेमग्रंथ के खुलने से पहले ही रणधीर कपूर के पिता राजकपूर बबीता पर कुपित हो गए थे,वहीं जॉय मुखर्जी के साधना को मन ही मन चाहने से पहले ही उनके पिता ये तमन्ना दिल में पाल बैठे थे कि काश, इन दोनों युवा पंछियों के दिल में कोई कोमल भावना पनप जाए।
तो क्या साधना को किसी की नजर लग गई?
साधना के पति आर के नय्यर की अन्य फ़िल्में भी सफल नहीं रहीं और ऐसा प्रतिभाशाली निर्देशक जिसने अपनी पहली ही फिल्म से अपना, अपने हीरो का, और अपनी हीरोइन का सुनहरा भविष्य मुकर्रर कर छोड़ा था, डगमगाने लगा।
नय्यर को समझ में नहीं आया कि अचानक ऐसा क्या हुआ कि दर्शकों ने उनकी फ़िल्मों से मुंह मोड़ लिया।
सच में, किसी ने ठीक ही कहा है कि वक़्त की पाबंद हैं आती जाती रौनकें!
फ़िल्म "दूल्हा दुल्हन" की रिलीज़ के बाद एक महिला पत्रकार साधना का इंटरव्यू लेने आई। ये कई बार लिख कर अब तक साधना की फैन और सहेली बन चुकी थी। फ़िल्म को दो बार देख भी आई थी।
इसने काफ़ी देर तक साधना के साथ में रह कर इंटरव्यू लिया था।
- एक बात बताइए, आप बुरा मत मानिएगा, पर इस फ़िल्म में आपका वो हमेशा वाला जलवा नज़र नहीं आया। लड़की ने सीधे सीधे पूछ लिया।
- अरे, फ़िल्म ब्लैक एंड व्हाइट थी न ! साधना ने पत्रकार को कुछ अचंभे से देखते हुए कहा।
- साधना मैडम, हम इससे पहले आपको ढेर सारी ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों में देख चुके हैं। लव इन शिमला, परख, हम दोनों, एक मुसाफ़िर एक हसीना सब ब्लैक एंड व्हाइट ही तो थीं। पर सब एक से बढ़ कर एक थीं। लड़की बोली।
- अरे, तुम्हें नहीं पता, राजकपूर साहब बहुत ठिगने हैं। मुझसे भी छोटे। इतनी परेशानी होती थी, पूछते रहते थे- तुमने हील तो नहीं पहनी? दिखाओ कौन सी चप्पल हैं इस सीक्वेंस में? डायरेक्टर से कहते ये सीन वरांडे में ही लेना ज़रूरी है क्या, सीढ़ियों के पास अा जाएं? और लपक कर सीढ़ी पर चढ़ जाते। साधना खिलखिलाते हुए राजकपूर की नक़ल करके बतातीं और उनकी सहेली मन ही मन मुस्करा कर मज़े लेती।
वो भी शायद घर से ठान कर आई थी कि आज साधना को तंग करना है। बोली- लेकिन,ये कोई राज साहब की पहली फ़िल्म तो नहीं थी? इससे पहले भी उन्होंने कई लंबी हीरोइनों के साथ फ़िल्में की हैं। नूतन जी के साथ उनकी कई फ़िल्में आई हैं, और नूतन भी आपकी तरह लंबी हैं।
साधना ने कुछ गुस्से से उसे देखा। साधना समझ गईं कि उनकी दाल इस जवाब से भी नहीं गली। पर उन्होंने हार नहीं मानी। सुर बदल कर बोलीं- अरे यार, तुम्हें तो मालूम है न, मैंने सबसे पहले कैमरा उनकी फ़िल्म श्री चार सौ बीस में एक कोरस गर्ल बन कर ही फेस किया था। फ़िर कहां तो वो ग्रेट आर्टिस्ट, शोमैन, इतनी सीनियर हस्ती, और कहां मैं? कुछ नर्वसनेस तो होनी ही थी।
कहती कहती साधना कुछ संजीदा हुईं और वो महिला पत्रकार उस शख्सियत को गर्व और स्नेह - सम्मान से देखती रही जो खुद एक से बढ़कर एक सुपर हिट फ़िल्में देने वाली कामयाब हस्ती थी, और अपनी सफ़ाई इस तरह दिए जा रही थी, जैसे कोई जूनियर कलाकार हो, जिसने सीन में कुछ गलती कर दी हो।
महिला उनकी अदा पर नतमस्तक हो गई।
फ़िर साथ में चाय पीते - पीते साधना ने उसके सामने कई राज़ खोल डाले।
किसी से कहना मत, की हिदायत के साथ दबी ज़बान में साधना ने अपनी मित्र को ये भी बता डाला कि राजकपूर अपने बेटे डब्बू को लेकर आजकल कुछ ज़्यादा ही परेशान हैं।
अब सामने वाली तो पत्रकार ठहरी। वो भी फ़िल्म जगत की। उसका तो रोज़ का काम ही ये था कि हवा में गंध सूंघे, मिट्टी पर तिल बिखेरे, पानी के छीटें मारे और बना दे लहलहाता हुआ ताड़ का जंगल!
चंद दिनों में सब फिल्मी और गैर फिल्मी रिसालों में ऐसी सुर्खियां लहराने लगीं - "पिता का बदला बेटे से लेंगे राज?", "डब्बू के प्यार को अपना कर पृथ्वीराज कपूर को सबक सिखाने की तैयारी", "रणधीर के सामने दो ही रास्ते- बंगला छोड़ो या बबीता!"
इन सुर्खियों के माने समझ पाना उन लोगों के लिए तो आसान था जिन्होंने फ़िल्म जगत का स्वर्ण युग कहा जाने वाला ये समय अपनी आंखों देखा और कानों सुना हो, पर बाकी लोगों के लिए इन्होंने अफवाहों का बाज़ार सजा दिया।
राजकपूर अपनी हर फ़िल्म के लिए नायक तो स्वयं को, या फ़िर अपने परिवार से किसी युवक को चुनते थे, किन्तु नायिका चुनने के लिए देश - विदेश की तमाम अभिनेत्रियों को तमाम तरह के टेस्ट्स, जांच, परीक्षाओं, प्रशिक्षणों से गुजरना पड़ता था। फ़िर पृथ्वीराज कपूर से लेकर राजकपूर तक का सार्वजनिक रूप से ये कहना कि हमारे परिवार की कोई बेटी या बहू फ़िल्मों में कभी काम नहीं कर सकती, उनकी फ़िल्मों में महिलाओं की भूमिका और अभिनय प्रक्रिया को संदिग्ध बनाता था।
यही कारण था कि शम्मी कपूर और शशिकपूर इस विरासत से आहिस्ता से अलग हो गए। आर के स्टूडियो और बैनर पूरी तरह राजकपूर के आधिपत्य में ही आ गया।
संयुक्त परिवार के एक साथ मिल कर रहने के दावे भी समय - समय पर कुछ सदस्यों के अलग फ्लैट्स में शिफ्ट होते चले जाने से धूमिल पड़ने लगे।
शम्मी कपूर ने दो बार विवाह रचाया, और दोनों बार फ़िल्म अभिनेत्रियां ही उनकी जीवन संगिनी बनीं। हालांकि नक्षत्रों की तिरछी चाल ने उनका पीछा कभी नहीं छोड़ा।
शशि कपूर ने जेनिफ़र से शादी की जो परदेसी महिला थीं किन्तु उनका गहरा लगाव अभिनय से था। वो नाटकों में ज़्यादा सक्रिय थीं किन्तु उन्होंने फिल्मों में भी काम किया। शशिकपूर के सभी बच्चे खुद भी फ़िल्मों आए। हालांकि सफ़लता उनमें से किसी को नहीं मिली।
रणधीर कपूर, ऋषि कपूर और राजीव कपूर तीनों राज कपूर के बेटे थे। तीनों ने फ़िल्मों में क़दम रखा और इनके लिए घर का प्रोडक्शन हाउस हमेशा उपलब्ध रहा। ये बात और है कि बड़ी सफ़लता केवल ऋषि कपूर ने ही अपने नाम लिखी।
ऐसे में साधना ये कभी समझ नहीं सकीं कि उनकी चचेरी बहन बबीता की दोस्ती अगर रणधीर कपूर से हो गई थी तो राजकपूर इस हद तक चिंतित क्यों थे? और अभी तो बबीता व डब्बू भी अपनी उम्र के उस दौर में ही थे, जिसे टीन एज का सुनहरा किनारा कहा जाता है।
साधना ने तो खुद प्यार किया था। उनका भोला भाला मन तो उनसे ये कहा करता था कि जब हम फ़िल्म जगत में बनने वाली हर फ़िल्म को प्रेम से ही शुरू करते हैं,और प्रेम पर ही ख़त्म, तो अपने घर परिवार बच्चों या समाज में हो जाने वाले प्यार पर इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं?
इसी सोच से शायद रूप की इस रानी का चेहरा इस क़दर दमकता था कि फ़िल्म के पर्दे पर नायक कह उठते थे - कितने मीठे हैं लब तेरे ऐ जाने ग़ज़ल, तू बुरा भी कहे तो लगे है भला!
साधना के चाचा हरि शिवदासानी के परिवार से साधना के परिवार का ज़्यादा मेलजोल कभी नहीं रहा।
वैसे तो दोनों ही परिवार पाकिस्तान से विभाजन के समय हिंदुस्तान आए थे लेकिन वो दिन पारिवारिक रिश्ते निभाने के नहीं, बल्कि अपना अपना खोया आधार फ़िर से तलाशने की जद्दोजहद के दिन थे।
फ़िर मुंबई जैसे शहर में घरों के फासले भी इतने सीमित नहीं होते कि किसी खास ज़रूरत के बिना आना जाना निभ सके।
दोनों परिवारों में से फ़िल्मों में पहला मुकाम चाचा हरि शिवदासानी ने बनाया।
साधना तब छोटी थीं, हालांकि उनके सपने बड़े थे, इरादे बड़े थे और मंसूबे बड़े थे।
ये सिंधी समुदाय की खासियत सारे देश में ही थी कि इसमें हर शख़्स बेहद खुद्दार होता है। और अपना वतन छोड़ कर नई दुनियां में अपने घरौंदों के लिए पर मारते परिंदों में तो ये खासियत और भी शिद्दत से पाई जाती थी।
लोगों ने मिल्कियत हारी थी, अपने ज़मीर नहीं हारे थे।
अपने माल -असबाब -ज़र -ज़मीन छोड़े थे, हौसले नहीं छोड़े थे।
ये सारे तौर - तरीके तब तो आपका बड़प्पन कहलाते हैं जब आप मुश्किल में, तंगहाली में हो, लेकिन यही आपका घमंड कहलाए जाने लगते हैं जब आप अपनी कुछ हैसियत बना लो।
बबीता का स्वभाव शुरू से ही कुछ अलग था।
साधना और बबीता को कभी साथ - साथ, घुलते मिलते नहीं देखा गया।
इसका एक कारण ये भी था कि बबीता की मां बारबरा अंग्रेज़ महिला थीं। मां का कुछ असर बबीता के स्वभाव में होना स्वाभाविक ही था। जबकि साधना की मां लाली शिवदासानी एक घरेलू महिला थीं। यद्यपि उन्होंने स्कूल में पढ़ाने का काम किया था फिर भी स्वभाव से घरेलू ही थीं। चाची बारबरा एक फ़िल्म आर्टिस्ट की बीवी होने का रुतबा भी रखती थीं।
और बाद में साधना के रजतपट की साम्राज्ञी बन जाने के बाद दिलों में दूसरी तरह की दूरियों ने घर कर लिया था।
बबीता को जब ये अहसास हुआ कि राजकपूर उसे फ़िल्मों में काम पाने के लिए रणधीर कपूर के पीछे लगी लड़की समझते हैं तो उसने भी उनके परिवार से इस बाबत कोई मदद न लेने की ठानी।
इतना ही नहीं, उसने साधना से भी एक अदृश्य दूरी बना ली ताकि जीवन में उसकी सफ़लता का श्रेय खुद उसे ही मिले, किसी और को नहीं।
इस तरह सबकी खिचड़ी अलग- अलग हांडी में पकने का नतीज़ा ये हुआ कि राजकपूर और साधना, दोनों को ही फ़िल्म "दस लाख" लगभग पूरी हो जाने के बाद पता चला कि बबीता हीरो संजय खान के साथ फ़िल्मों में लॉन्च होने जा रही है।
मीडिया में चाहे बबीता के आगमन को "मिस्ट्री गर्ल साधना की बहन भी फ़िल्मों में" कह कर प्रचारित किया गया हो पर ये सच था कि ये खुद साधना और राजकपूर के लिए भी एक खबर ही थी।
फ़िल्म एक हल्की- फुल्की कॉमेडी थी पर सफ़ल रही।
इस फ़िल्म में बबीता के पिता हरि शिवदासानी ने भी एक भूमिका निभाई थी।
बहुत कम लोग जानते हैं कि फ़िल्मस्टार बन जाने के पहले से ही बबीता और साधना के बीच आपसी मनमुटाव हो गया था। इतना ही नहीं, बल्कि राजकपूर के साथ भी साधना को बबीता के कारण ही एक मिसअंडरस्टैंडिंग झेलनी पड़ी, जिसका प्रभाव साधना के जीवन में बहुत दूर तलक गया। ये ग़लत फहमी काफ़ी बाद तक बनी रही और कभी ठीक से दूर की ही नहीं जा सकी।
जब तक इसका प्रभाव दूर हो पाता, साधना के सुनहरे दिन उनके हाथ से जा चुके थे।
थायराइड ने साधना के आलीशान सुनहरे सफ़र को रोक दिया। कुछ लोग जो कभी साधना को अपनी फिल्म में लेने का ख्वाब देखते थे पर साधना की फीस और उनके बजट का सामंजस्य नहीं बैठ पाता था, अब बबीता का रुख करने लगे।
अगले ही वर्ष बबीता की रवि नगायच के निर्देशन में जितेंद्र के साथ आई फ़िल्म "फ़र्ज़" ज़बरदस्त हिट रही। ये फिल्म जेम्स बॉन्ड शैली की अपराध फ़िल्म थी, पर युवा और आकर्षक जितेंद्र के साथ बबीता की जोड़ी अच्छी जमी।
इस बीच साधना इलाज के लिए बॉस्टन जा चुकी थीं, किन्तु उनकी फ़िल्म "अनीता" प्रदर्शित की गई। फ़िल्म को साधारण सफलता मिली।
अनीता उन्हीं राज खोसला की तीसरी फ़िल्म थी, जिन्होंने वो कौन थी और मेरा साया जैसी सुपर हिट फ़िल्में बनाई थीं। जिन तीन फ़िल्मों के प्रभाव से साधना को मिस्ट्री गर्ल का खिताब दिया गया था, ये उसी में से तीसरी फ़िल्म थी।
लेकिन साधना का जादू इसमें दर्शकों को मुग्ध नहीं कर पाया। इसके कई कारण थे।
एक कारण तो ये था कि पहली दोनों सफल फ़िल्मों के बाद खोसला शायद इसमें कुछ अति आत्मविश्वास का शिकार हो गए, और तकनीकी रूप से भव्यता रचने के बावजूद वो पहले सा प्रभाव नहीं रच सके।
दूसरे, इस बार उन्होंने बाज़ार के रुख के अनुसार अपना संगीत निर्देशक बदला और मदन मोहन जैसा सुरीला जादू लक्ष्मीकांत प्यारेलाल नहीं जगा पाए।
तीसरे, फ़िल्म के गीतकार राजा मेहंदी अली ख़ान इसी फ़िल्म के गीत को बीच में अधूरा छोड़ कर दिवंगत हो गए जिसे आनंद बख़्शी ने पूरा किया।
फ़िल्म के प्रचार में ये कहा गया था कि इसमें साधना के चार रोल्स हैं। जबकि दर्शक ये देख कर ठगा महसूस करने लगे कि हीरोइन अलग रोल्स में नहीं है बल्कि स्प्लिट पर्सनैलिटी की शिकार के रूप में प्रेमिका, बार डांसर, बंजारन और जोगन बन कर अलग अलग परिधान मात्र में है।
अन्तिम और सबसे बड़ी वजह इस फ़िल्म की विफलता की ये रही कि थायराइड की शिकार साधना अपने चेहरे का लावण्य खोने लगी थी और दर्शक नायक के साथ सुर मिला कर ये बात स्वीकार नहीं कर पाए कि "गोरे गोरे चांद से मुख पर काली काली आंखें हैं"। फ़िल्म का ग्रामीण नृत्य गीत "कैसे करूं प्रेम की मैं बात" भी "झुमका गिरा रे" वाला असर नहीं पैदा कर पाया।
सौ बातों की एक बात ये कि वक़्त की गर्दिश ने आर के नय्यर और साधना के सुकून भरे दिन छीन लिए।
कहते हैं कि साधना की फ़िल्मों से बेशुमार कमाई के चलते उनके निर्देशक पति आर के नय्यर ने अपनी फ़िल्में भी काफी ओवर बजट कर ली थीं और कई बार अपना पैसा ही लगाने के साथ साथ बाज़ार से भी पूंजी ऋणों के रूप में उठा ली थी।
फ़िल्मों ने उतना बिजनेस नहीं किया और वो कर्ज के भारी दबाव में आ गए।
उधर साधना का महंगा इलाज़ शुरू हो गया। जो अभिनेत्री कभी राष्ट्रीय रक्षा कोष में प्रधान मंत्री को अपने बेशकीमती ज़ेवरात सौंप आई थी, उसके खर्चे के लिए नय्यर को लोन लेने पड़े।
ये ही है ज़िन्दगी।